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नीतियों में उलटफेर को तरजीह

खुदरा महंगाई दर नरम पड़ने के बाद भी अमेरिका, यूरोपीय संघ (यूई) और ब्रिटेन में बॉन्ड प्रतिफल 15 वर्षों के उच्चतम स्तर पर हैं।

Last Updated- July 14, 2023 | 11:29 PM IST
भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर अगले वित्त वर्ष 7 फीसदी!, Indian economy likely to expand at around 7% in FY25, says FinMin

वर्ष 2008-09 में वैश्विक आर्थिक संकट के बाद प्रभाव में आईं नीतियों के उलट अब वैश्विक स्तर पर नई नीतियों को वरीयता दी जा रही है। बता रहे हैं नीलकंठ मिश्र

खुदरा महंगाई दर नरम पड़ने के बाद भी अमेरिका, यूरोपीय संघ (यूई) और ब्रिटेन में बॉन्ड प्रतिफल 15 वर्षों के उच्चतम स्तर पर हैं। इसका कारण यह है कि बॉन्ड बाजार भविष्य में महंगाई और कम होने की उम्मीद कर रहा है।

अमेरिका और ब्रिटेन में आवास ऋण दरें पिछले साल दर्ज सर्वोच्च स्तर के ही करीब हैं। दो महीने पहले मैंने जिक्र किया था कि राजकोषीय स्तर पर संभावनाएं सीमित रहने के कारण मौद्रिक नीति अत्यधिक कठोर बनाने की आशंका बढ़ गई है। अब यह आशंका परिलक्षित भी होने लगी है।

जापान, चीन और भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं में राजकोषीय हस्तक्षेप कम हुए थे, इसलिए वहां समस्या अधिक गंभीर नहीं दिख रही है। अमेरिका में एक ढीली राजकोषीय नीति से भी हमें यह समझने में मदद मिलती है कि लंबे समय से जताई जा रही आर्थिक सुस्ती की आशंका अब तक वास्तविकता में तब्दील क्यों नहीं हुई है।

पिछले कुछ दशकों के दौरान कई अर्थशास्त्रियों ने राजकोषीय नीति एवं महंगाई के आपसी संबंध को ओर ध्यान आकृष्ट किया था। सार्जेंट ऐंड वॉलेस ने 1981 में प्रकाशित अपने पत्र ‘सम अन्प्लीजेंट मॉनिटरिस्ट अर्थमेटिक’ में इस संबंध का जिक्र भी किया था।

बैंक ऑफ इंटरनैशनल सेटलमेंट्स का नवीनतम अध्ययन राजकोषीय नीति और महंगाई के आपसी जुड़ाव की बात का समर्थन करता है। इस अध्ययन में कहा गया है कि राजकोषीय घाटे में एक प्रतिशत अंक की वृद्धि से दो वर्षों के दौरान महंगाई 10 से 50 आधार अंक तक बढ़ सकती है।

राजकोषीय नीति प्रेरित व्यवस्था में यह प्रभाव अत्यधिक गंभीर होता है। इस व्यवस्था में सरकार ऋण स्थिरता पर कम ध्यान देती है और मौद्रिक नीति मूल्य स्थिरता बहाल करने के लिए ठोस या पर्याप्त कदम नहीं उठाती है।

इसके विपरीत, जब राजकोषीय मोर्चे पर अधिक सूझ-बूझ का परिचय दिया जाता है (यानी जब सरकार एक स्थिर ऋण-सकल घरेलू अनुपात का लक्ष्य निर्धारित करती है) और मौद्रिक नीति स्वतंत्र होती है तब ऊंचे राजकोषीय घाटे का महंगाई पर कम असर होता है।

बैंक ऑफ इंटरनैशनल सेटलमेंट्स ने 2011 तक 21 विकसित अर्थव्यवस्थाओं का अध्ययन किया जिनमें केवल एक सक्षम राजकोषीय नीति आधारित थी। हालांकि, जो परिभाषाएं दी गईं उनके आधार पर संपन्न अर्थव्यवस्थाओं में वर्तमान नीति बदतर परिणामों की ओर इशारा करती हैं।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अनुसार इस वर्ष विकसित अर्थव्यवस्थाओं में राजकोषीय घाटा जीडीपी का 4.4 प्रतिशत तक रह सकता है। यह 2020 में दर्ज जीडीपी के 10.2 प्रतिशत के स्तर से अधिक होगा, मगर 2012 से (कोविड महामारी से प्रभावित अवधि को छोड़कर) सर्वाधिक होगा।

ऊंची ब्याज दरों से सरकार पर ऋण बढ़ता है और आने वाले समय में प्राथमिक घाटा (राजकोषीय घाटे में ब्याज भुगतान पर आने वाली लागत घटाने के बाद प्राप्त आंकड़ा) में भी बहुत कमी आने की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

यह नीति इसके उलट है जो 2008-09 संकट के बाद प्रभाव में लाई गई थी। उस समय विकसित अर्थव्यवस्थाओं ने लचीली मौद्रिक एवं अधिक कड़ी राजकोषीय नीति का चयन किया था। उस नीति के कुछ अवांछित प्रभावों-रोजगार बाजार में देरी से सुधार और वित्तीय परिसंपत्तियां महंगी होने से वीभत्स होती धन असमानता- ने संभवतः उल्टे दृष्टिकोण को जन्म दिया।

अब तक अमेरिका में सबसे नीचे से एक चतुर्थक आबादी के लिए वेतन वृद्धि शीर्ष एक चतुर्थक आबादी की तुलना में अधिक रही है। कम शिक्षित एवं आर्थिक रूप से कमजोर समुदायों के लिए बेरोजगारी दर भी कम हो गई है। इसे देखते हुए राजनीतिक रूप से भी सरकार के लिए राजकोषीय मजबूती तेजी से बहाल करने का कोई तात्कालिक कारण नहीं है। अमेरिकी संसद के बजट कार्यालय (सीबीओ) ने अगले कुछ वर्षों तक राजकोषीय अनुपात वर्तमान दायरे में ही रहने की उम्मीद व्यक्त की है।

इसके दो महत्त्वपूर्ण परिणाम हो सकते हैं। सबसे पहले, हमें राजकोषीय नीति के भविष्योन्मुखी संकेतकों पर अवश्य ध्यान देना चाहिए, न कि केवल महंगाई की गति पर नजर बनाई रखनी चाहिए।

दूसरी बात, वैश्विक मौद्रिक नीति दीर्घ अवधि तक कड़ी रह सकती है। हम जानते हैं कि ऊंची ब्याज दर के आर्थिक प्रभाव केवल उच्चतम ब्याज दर पर निर्भर नहीं रहते हैं बल्कि उस अवधि पर भी निर्भर करते हैं जिसमें यह (उच्चतम ब्याज दर ) ऊंचे स्तरों पर रहती है। अधिकांश विश्लेषकों को लगता है कि ब्याज दर अपने उच्चतम स्तर पर पहुंचने के लगभग निकट पहुंच चुकी है।

कोविड महामारी से पहले के दशक में राजकोषीय समेकन एवं मौद्रिक नीति में ढील से वित्तीय परिसंपत्तियों के मूल्य बढ़ गए थे। इसका परिणाम यह हुआ था कि वैश्विक संपत्ति एवं जीडीपी अनुपात 4.9 प्रतिशत पहुंच गया, जो 2012 में केवल 3.7 प्रतिशत था।

जीडीपी आय का आकलन करता है और वित्तीय संपत्ति अधिकांशतः भविष्य की आय से संबंधित होती है। इन दोनों के अनुपात में वृद्धि का एक बड़ा हिस्सा डिस्काउंट रेट में बदलाव का कारण बन सकता है।

ऊंची दरें लंबे समय तक रहने से इस अनुपात में कमी आनी चाहिए जिससे आर्थिक वृद्धि और स्थिरता की राह में नई चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं। मसलन, धन की उपलब्धता कम रहने से जोखिम लेने की क्षमता कमजोर हो सकती है और परिसंपत्ति और देनदारी में असंतुलन बढ़ सकता है।

नीतिगत प्रभाव भी भिन्न होगा। इसका आशय यह है कि दुनिया की दूसरी अर्थव्यवस्थाओं पर अमेरिका की नीतियों का यह अनपेक्षित प्रभाव होगा। सहज मौद्रिक नीति से उन अर्थव्यवस्थाओं को लाभ होता है जो विदेश से प्राप्त होने वाली पूंजी पर निर्भर रहती हैं। ये वे देश होते हैं जहां चालू खाते का घाटा अधिक रहता है। वित्तीय प्रोत्साहन जारी रहने से उन देशों को लाभ मिलेगा जिनका अमेरिका के साथ व्यापार अधिशेष रहता है।

मौद्रिक नीति लंबे समय तक कड़ी रहने से थोड़ी अधिक विकसित एवं तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं द्वारा लिए गए ऋणों के भुगतान समय पर नहीं होने से उत्पन्न जोखिम बढ़ जाते हैं। जहां तक भारत का प्रश्न है तो पिछले तीन वर्षों से सेवाओं के निर्यात बढ़ने से बाह्य खातों पर निर्भरता कम हो रही है।

अमेरिका में वेतन में मजबूत बढ़ोतरी से भारत से सेवाओं के निर्यात को ताकत मिलनी चाहिए। मगर कई अन्य अर्थव्यवस्थाओं के लिए कम और अधिक महंगा डॉलर आर्थिक दबाव लगातार बढ़ाता रहेगा।

भविष्य में अधिक गंभीर चिंता उत्पन्न हो सकती है। अमेरिकी बॉन्ड को लेकर अविश्वास बढ़ना इनमें एक चिंता हो सकती है। फिलहाल इस संभावित स्थिति के बारे में सोचना उचित नहीं होगा और इसलिए भी क्योंकि डॉलर का कोई विश्वसनीय विकल्प मौजूद नहीं है।

हालांकि, ब्याज दरें लगातार ऊंचे स्तरों पर बने रहने से ऋण चुकाने की क्षमता से जुड़े सिद्धांतों पर दबाव बढ़ सकता है। कई लोग मानते हैं कि ऋण-जीडीपी में महंगाई प्रेरित गिरावट आएगी। उनका तर्क है कि महंगाई प्रेरित नॉमिनल जीडीपी (महंगाई समायोजन के बिना जीडीपी) में वृद्धि से इस अनुपात में कमी आएगी और ऐसा जीडीपी में बढ़ोतरी के कारण संभव होगा।

हालांकि, अमेरिका में प्राथमिक घाटा स्थिर रहने के बावजूद ब्याज भुगतान में बढ़ोतरी से इस अनुपात के अगले दशक में सतत बढ़ने का अनुमान व्यक्त किया गया है। यह अनुपात 2022 में जीडीपी का 1.9 प्रतिशत से बढ़कर 2033 में जीडीपी का 3.7 प्रतिशत रहने का अनुमान है। 2021 की तुलना में यूरोप में ऋण-जीडीपी अनुपात में कमी आई है मगर अब भी यह कोविड पूर्व अवधि से ऊंचे स्तरों पर है।

कुछ अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि ऋण को सहज स्तर पर रखने को लेकर विश्वास में कमी महंगाई में बढ़ोतरी का एक प्रमुख कारण है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में अधिक ऋण के बोझ से निपटने का विश्वास इसलिए आया कि वहां ब्याज दरें कम थीं। ब्याज दरें जितनी अवधि तक ऊंचे स्तरों पर रहती हैं ऊंची ब्याज दरों पर रीफाइनैंसिंग का जोखिम उतना ही अधिक रहता है। इसके साथ ही राजकोषीय प्रभुत्व का भी जोखिम रहता है जिससे महंगाई ऊंचे स्तरों पर लगातार बनी रहती है।

कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि 1960 में जिस तरह ‘ट्रिफिन दुविधा’ (आर्थिक हितों के टकराव के कारण उत्पन्न स्थिति) ने सोना को आधार बनाकर डॉलर का मूल्य तय करने को लेकर प्रश्न खड़े किए और यह अनुमान व्यक्त किया गया कि 1971 में यह पद्धति टूट जाएगी।

अब ‘नई ट्रिफिन दुविधा’ इसे लेकर चिंता उत्पन्न कर सकती है कि क्या अमेरिकी सरकार के बॉन्ड को भविष्य में लागू होने वाले करों से समर्थन मिल सकता है या नहीं। यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि केंद्रीय बैंक में डॉलर भंडार अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच चुका है और गैर-संप्रभु संपत्तियों की हिस्सेदारी बढ़ने का आशय है कि इन परिसंपत्तियों की बाजार समीक्षा करना शुरू कर देगा।

(लेखक ऐक्सिस बैंक में मुख्य अर्थशास्त्री और ऐक्सिस कैपिटल में वैश्विक शोध प्रमुख हैं)

First Published - July 14, 2023 | 11:29 PM IST

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