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न्यायमूर्ति नजीर अयोध्या भूमि विवाद, निजता के अधिकार पर न्यायालय के ऐतिहासिक फैसलों का हिस्सा रहे

Last Updated- January 04, 2023 | 7:32 PM IST
Supreme_Court

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के पद से बुधवार को सेवानिवृत्त हो रहे न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर राजनीतिक रूप से संवेदनशील अयोध्या भूमि विवाद और त्वरित ‘तीन तलाक’ तथा ‘निजता के अधिकार’ को मौलिक अधिकार घोषित करने समेत कई ऐतिहासिक फैसलों का हिस्सा रहे हैं।

सत्रह फरवरी, 2017 को शीर्ष अदालत के न्यायाधीश बने न्यायमूर्ति नजीर उन संविधान पीठों का हिस्सा रहे, जिसने 2016 में 500 और 1,000 रुपये के नोटों के विमुद्रीकरण से लेकर सरकारी शिक्षण संस्थानों में दाखिले और नौकरियों में मराठाओं को आरक्षण देने तथा उच्च लोक सेवकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार जैसे मामलों में अपने फैसले सुनाए।

न्यायमूर्ति नज़ीर का जन्म पांच जनवरी, 1958 को हुआ और उन्होंने 18 फरवरी, 1983 को वकालत पेशे की शुरुआत की। उन्होंने कर्नाटक उच्च न्यायालय से वकालत शुरू की और 12 मई, 2003 को उसी उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश नियुक्त किये गये। बाद में उन्हें 24 सितंबर, 2004 को स्थायी न्यायाधीश नियुक्त किया गया।

शीर्ष अदालत के न्यायाधीश के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान न्यायमूर्ति नजीर उस संविधान पीठ का हिस्सा रहे, जिसने 4:1 के बहुमत के आधार पर अपने 2018 के फैसले की समीक्षा संबंधी याचिकाएं खारिज कर दी थी। संविधान पीठ ने केंद्र की महत्वाकांक्षी आधार योजना को संवैधानिक रूप से वैध ठहराया था, लेकिन इसके कुछ प्रावधानों को निरस्त कर दिया था, जिसमें इसे बैंक खातों, मोबाइल फोन और स्कूल में दाखिले से जोड़ना अनिवार्य किया गया था।

पांच न्यायाधीशों की उस संविधान पीठ में भी न्यायमूर्ति नजीर शामिल थे, जिसने कहा था कि एक राज्य के अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति समुदाय का सदस्य दूसरे राज्य की सरकारी नौकरियों में आरक्षण या शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के लाभ का दावा नहीं कर सकता, अगर उसकी जाति दूसरे राज्य में अधिसूचित नहीं है।

वह पांच-न्यायाधीशों की उस संविधान पीठ का भी हिस्सा थे, जिसने नवंबर 2019 में अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ किया था और केंद्र को एक मस्जिद के निर्माण के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को पांच एकड़ का भूखंड आवंटित करने का निर्देश दिया था।

अयोध्या मामले में संविधान पीठ का हिस्सा बनने से पहले, न्यायमूर्ति नज़ीर तीन न्यायाधीशों की पीठ में भी शामिल थे, जिसने 2:1 के बहुमत से अपने 1994 के फैसले में मस्जिद को लेकर की गई टिप्पणियों पर पुनर्विचार के मुद्दे को एक बड़ी पीठ को भेजने से इनकार कर दिया था।

शीर्ष अदालत ने 1994 के अपने फैसले में कहा था कि मस्जिद इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है। यह मामला अयोध्या भूमि विवाद की सुनवाई के दौरान उठा था। ‘तीन तलाक’ मामले में, 3:2 के बहुमत के फैसले में पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने मुसलमानों के बीच त्वरित तलाक प्रथा को ‘अवैध’ और ‘असंवैधानिक’ घोषित कर दिया था।

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न्यायमूर्ति नज़ीर और भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जे. एस. खेहर अगस्त 2017 में सुनाए गए ‘तीन तलाक’ के फैसले में अल्पमत में थे। एक अन्य मामले में न्यायमूर्ति नज़ीर की अगुवाई वाली पीठ ने 4:1 के बहुमत से फैसला सुनाया था कि उच्च सार्वजनिक पदाधिकारियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों पर अतिरिक्त प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है, क्योंकि इसके लिए संविधान के तहत पहले से ही व्यापक आधार मौजूद हैं।

नौ-सदस्यीय संविधान पीठ ने अगस्त 2017 में एकमत से निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया था। इस संविधान पीठ में भी न्यायमूर्ति नजीर शामिल थे। यह मानते हुए कि बेटियों को उनके समानता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है, न्यायमूर्ति नज़ीर की मौजूदगी वाली तीन-सदस्यीय पीठ ने फैसला सुनाया था कि संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति में बेटियों के पास भी समान सहदायिक (समान विरासत के) अधिकार होंगे, भले ही पिता की मृत्यु हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के अस्तित्व में आने से पहले क्यों न हो गई हो।

First Published - January 4, 2023 | 7:27 PM IST

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