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मखाना उद्योग को सरकार से स्पष्ट नीति की दरकार, बिहार के लोगों में छाई निराशा

बिहार बागवानी विकास सोसायटी के आंकड़ों के मुताबिक, वित्त वर्ष 2022 तक विश्व के 90 फीसदी मखाना का उत्पादन भारत में होता है।

Last Updated- May 01, 2024 | 10:19 PM IST
Makhana traders demand policy refit for opportunity pop-up मखाना उद्योग को सरकार से स्पष्ट नीति की दरकार, बिहार के कई लोग अधूरी नीतियों से निराश

ब्रिटेन में निर्माण व्यवसाय में 27 वर्षों से अधिक तक काम करने वाले अनुभवी कॉरपोरेट कर्मचारी 47 वर्षीय मनीष आनंद झा ने अपनी मातृभूमि से प्रेम के कारण बिहार के मधुबनी जिले में मखाना प्रसंस्करण प्लांट लगाने के इरादे से वापसी की है। मनीष का संयंत्र मधुबनी के अरेर में बांस के पेड़ों और खुले मैदान के बीच है, जो राजधानी पटना से करीब 160 किलोमीटर दूर है और यह स्पष्ट निर्यात नीतियों और एक उचित उद्योग निकाय की बाट जोह रहा है।

मनीष कहते हैं, ‘दो साल पहले जीआई (भौगोलिक संकेत) टैग मिलने के बाद भी मखाना उद्योग का अभी कोई संगठन नहीं है। इसके अलावा, हार्मोनाइज्ड सिस्टम ऑफ नॉमेनकल्चर (एचएसएन) कोड नहीं रहने से भी इस उद्योग की राह कठिन हो गई है।’

आईआईटी कानपुर से स्नातक राजीव रंजन भी कृषि उत्पाद कंपनी लगाने के लिए अपने गृह जिले दरभंगा वापस आ गए हैं। रंजन का कहना है, ‘सरकारी नीतियों के कारण ब्लैक डायमंड उत्पादकों और व्हाइट गोल्ड पॉपर्स (मखाना) के घर बिहार के मिथिलांचल से वैश्विक बाजार तक अपनी पहुंच नहीं बनाई है। एचएसएन कोड की कमी से मखाना विश्व बाजार के लिए दुर्लभ हो जाता है और इसके निर्यात में बाधा आती है।’

मुंबई में 14 वर्षों से अधिक समय बिताने वाले एमबीए स्नातक प्रेम मिश्र मखाना प्रसंस्करण के जरिये अपना स्टार्टअप शुरू करने के लिए दरभंगा लौट आए हैं। वह कहते हैं, ‘मखाना के लिए मैनुअल प्रक्रिया काफी जटिल है। काले बीज से सफेद में परिवर्तित करने में अभी भी हाथों का ही उपयोग किया जाता है। सरकार की ओर से कोई आंकड़े नहीं हैं इसलिए ये सभी कारण काम को मैन्युअल श्रम पर अधिक निर्भर बनाते हैं जिससे कारोबार में करने में परेशानी होती है।’

मिश्र का कहना है, ‘मखाना के लिए कुछ फूड पार्क होने चाहिए जिससे हमें सरकार से सब्सिडी मिल सके।’

बिहार बागवानी विकास सोसायटी के आंकड़ों के मुताबिक, वित्त वर्ष 2022 तक विश्व के 90 फीसदी मखाना का उत्पादन भारत में होता है। मगर भारत से सिर्फ 200 मीट्रिक टन ही मखाना का निर्यात किया जाता है। मखाना बनाने के पारंपरिक तरीके ही निर्यात को जटिल बनाते हैं।

आईसीएआर के लुधियाना स्थित सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग ऐंड टेक्नोलॉजी (सिपहेट) ने बिहार में उगाए जाने वाले मखाने की थ्रेसिंग, सफाई, बीज ग्रेडिंग, सुखाने, भूनने के लिए खास तौर पर एक पूरी तरह मशीनीकृत प्रणाली विकसित की है।

वैज्ञानिक श्याम नारायण झा और रजनीश कुमार विश्वकर्मा को साल 2013 में भारत सरकार से मखाना के बीजों को निकालने और सजाने की मशीनीकृत प्रणाली के लिए पेटेंट मिला है। मखाना के बीजों को निकालने और सजाने के लिए मशीनीकृत प्रणाली के आविष्कार के 10 वर्षों के बाद भी केवल 8 से 10 फीसदी बीजों के मामले में ही यह हो पाया है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के कृषि इंजीनियरिंग के उप महानिदेशक एस झा ने कहा, ‘पॉपिंग मशीनों के लोकप्रिय न हो पाने की असल वजह ये है कि ये अंबाला, रायपुर और हिमाचल जैसे राज्यों से आते हैं। इससे उन्हें मंगाने में काफी लागत आती है।’

उद्योग के अंदरूनी सूत्रों ने बताया कि छोटे और मध्यम उद्यमों (एसएमई) के लिए 2 से 3 महीने के सीजन के लिए संयंत्रों को मंगाना काफी कठिन है।

मनीष आनंद झा ने कहा, ‘हमारे जैसे एसएमई के लिए सिर्फ तीन महीने के लिए 15 लाख रुपये लगाना काफी कठिनाई भरा हो जाता है और अगर इसमें खराबी आती है तो फिर हमें सरकार से भी कोई मदद नहीं मिलती है। इसलिए हम मैन्युअल तरीके से काम करते हैं।’ बिहार बागवानी विकास सोसायटी के आंकड़े दर्शाते हैं कि पिछले नौ वर्षों में मखाना उत्पादन क्षेत्र 171 फीसदी बढ़ गया है, और यह वित्त वर्ष 2012-13 के 13 हजार हेक्टेयर से बढ़कर वित्त वर्ष 2022-23 में 35,244 हेक्टेयर हो गया है।

आईसीएआर-सिपहेट (लुधियाना के सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट-हार्वेस्ट इंजीनियरिंग ऐंड टेक्नोलॉजी) के प्रधान वैज्ञानिक आरके विश्वकर्मा ने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा, ‘हमें अपने मखाना को बेचने में पश्चिमी बाजार में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि मैन्युअल मखाना पॉप एकरूपता नहीं देता है। इस वजह से ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी स्वीकृति नहीं है।’

विश्वकर्मा ने कहा कि चूंकि यह असंगठित क्षेत्र है इसलिए यह व्यापारियों को कीमतों को नियंत्रित करने की भी अनुमति देता है। उन्होंने कहा, ‘एक समस्या यह भी है कि मखाना उद्योग को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की मंजूरी भी नहीं मिली है। इसके साथ ही गुणवत्ता संबंधी चिंताएं भी हैं, जिस कारण भी कई खेपों को विदेश में नहीं स्वीकृत किया जाता है।’

मखाना का उत्पादन मुख्य रूप से बिहार के दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, पूर्णिया, कटिहार, सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, अररिया और किशनगंज जैसे दस जिलों में ही होता है। ये सभी जिले कुल मिलाकर 56,388.79 टन मखाना बीज और 23,656.10 टन मखाना का उत्पादन करते हैं।

प्रसंस्कृत बीजों से प्रति घंटे 12 किलोग्राम मखाना उत्पादन करने के लिए एक छोटी इकाई लगाने में 15 लाख की लागत आती है मगर इस संयत्र ने प्रसंस्करण समय को 2-3 दिनों से घटाकर सिर्फ 20 घंटे कर दिया गया है। मिश्र ने कहा, ‘सबसे बड़ी समस्या है कि लोगों को उन मशीनों को ठीक से चलाने का प्रशिक्षण तक नहीं है। सरकार द्वारा इस उद्योग को बढ़ाने के लिए मशीनें देने के बावजूद लोग उपयोग करने में असमर्थ हैं।’

व्यापारियों का एकाधिकार

मखाना का कोई विशिष्ट बाजार नहीं होने के कारण सीजन के दौरान कीमतों पर व्यापारियों का ही एकाधिकार रहता है। मखाना की खेती करने वाले 46 वर्षीय विकास सहनी कहते हैं कि चूंकि किसानों के पास कोई विशिष्ट मंडी नहीं है इसलिए उन्हें व्यापारियों के साथ गठजोड़ करने पर मजबूर होना पड़ता है जो अक्सर कीमतें कम कराने के लिए मोलभाव करते हैं।

वह समझाते हैं, ‘सीजन के दौरान जब हम मखाना बेचते हैं तो व्यापारी कभी-कभार कीमतों को लेकर मनमानी करते हैं। बाजार के आधार पर कीमत 12 से 22 हजार रुपये क्विंटल तक होती है।’ काले बीजों को अपने हाथों से मखाना में बदलने वाले दरभंगा जिले के 29 साल के पवन सहनी कहते हैं कि उन्हें जो मार्जिन मिलता है वह काफी कम रहता है।

उन्होंने कहा, ‘हम किसानों से मखाना के बीज लेते हैं और इसमें काफी मेहनत लगती है फिर भी हमें अच्छा मार्जिन नहीं मिलता है क्योंकि हमारे पास मखाना की बिक्री के लिए कोई खास बाजार नहीं है। या तो हमें व्यापारियों के पास जाना पड़ता है या फिर मखाना का प्रसंस्करण करने वाली कंपनियों के पास जहां हमें कभी-कभी उनकी शर्तों के अनुरूप समझौता करना पड़ता है।’

अमूमन सहनी जाति के परिवार वर्षों से यह काम करते आ रहे हैं। ये परिवार सीजन के दौरान दस जिलों में आते-जाते रहते हैं।

First Published - May 1, 2024 | 10:19 PM IST

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