एक 26 साल के भू-धातुक वैज्ञानिक स्टीव चिंगवारू ने सोने की खानों से जुड़ी एक बड़ी खोज की है। उनकी ये खोज सोने के खनन उद्योग में क्रांति ला सकती है। टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर के मुताबिक, चिंगवारू ने अपनी रिसर्च के दौरान पाया कि दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में स्थित विटवाटर्सरैंड बेसिन के खदानों के मलबे में करीब 420 टन “अदृश्य सोना” मौजूद है। इस सोने की कीमत 24 अरब डॉलर बताई जा रही है।
जोहान्सबर्ग 1886 से ही सोने के लिए मशहूर है. वहां की खदानों से निकाला गया मलबा, जिसे अक्सर “टेलिंग्स” कहा जाता है, दरअसल सोने से भरपूर जमीन का बचा हुआ हिस्सा होता है। परेशानी ये है कि अभी तक की तकनीक से इस मलबे से सिर्फ 30% सोना ही निकाला जा पाता है, बाकी 70% जस का तस रह जाता है। स्टीव चिंगवारू बताते हैं, “पहले भी इस मलबे से सोना निकाला जाता था, पर सिर्फ 30% ही मिल पाता था। मैं ये जानना चाहता था कि बाकी 70% सोना कहाँ जा रहा है? क्यों नहीं निकाला जा पा रहा? 70% तो बहुत बड़ी मात्रा है!”
अल जजीरा की रिपोर्ट के मुताबिक, चिंगवारू की रिसर्च में पाया गया कि ज्यादातर सोना “पाइराइट” नाम के खनिज में फंसा हुआ है, जिसे अक्सर “बेकार का सोना” भी कहा जाता है। सोना निकालने की मौजूदा तकनीकें इस पाइराइट को नजरअंदाज कर देती हैं। चिंगवारू ने अमेरिका के नेवादा में कारलिन खदान का उदाहरण देते हुए बताया कि पाइराइट से सोना निकालना पहले से ही जानी-मानी प्रक्रिया है, बस दक्षिण अफ्रीका के टेलिंग्स पर इसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है।
स्टीव चिंगवारू की ये खोज बहुत फायदेमंद हो सकती है, लेकिन इसके साथ कई चुनौतियां भी हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ केप टाउन की एसोसिएट प्रोफेसर मेगन बेकर का कहना है कि, “चिंगवारू की रिसर्च बताती है कि वहां बहुत सोना मौजूद है। लेकिन असल सवाल ये है कि क्या हमारे पास फिलहाल इतनी अच्छी तकनीक है कि सारा सोना निकालकर मुनाफा कमाया जा सके? अगर ऐसा नहीं हो सकता, तो कोई भी कंपनी इसमें पैसा नहीं लगाएगी।” हालांकि अभी तकनीकी और आर्थिक चुनौतियां हैं, फिर भी दक्षिण अफ्रीका की खनन कंपनियां इस खोज में काफी दिलचस्पी दिखा रही हैं।
सोने की इंडस्ट्री के बड़े लोगों ने चिंगवारू से संपर्क किया है। उनका मानना है कि भले ही सोना निकालने में बहुत खर्च आए, अगर सोने की कीमतें स्थिर रहती हैं तो मुनाफा कमाया जा सकता है। अल जजीरा की रिपोर्ट के मुताबिक, इस खोज में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी दिलचस्पी देखने को मिल रही है। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी और अमेरिका से भी चिंगवारू को जॉब ऑफर आए हैं। चिंगवारू की ये खोज जितनी महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण उनका सफर भी रहा है।
स्टीव चिंगवारू के पिता के गुजर जाने के बाद उनकी माँ ने उन्हें जिम्बाब्वे के हरारे शहर में पाला। जिम्बाब्वे की आर्थिक दिक्कतों के चलते बेहतर शिक्षा के लिए वे दक्षिण अफ्रीका चले गए। वहां स्टेलनबॉश यूनिवर्सिटी से उन्होंने भूविज्ञान में डिग्री हासिल की। वहीं उन्हें जियो मेटलर्जी का शौक पैदा हुआ, जो भूविज्ञान और धातुकर्म का मिला हुआ विषय है। यही शौक उन्हें इस क्रांतिकारी रिसर्च तक ले गया।
चिंगवारू की इस खोज के फायदे सिर्फ सोना निकालने तक सीमित नहीं हैं। इससे जोहान्सबर्ग के लोगों के स्वास्थ्य को भी फायदा हो सकता है। विटवाटर्सरैंड के मलबे को दोबारा से प्रोसेस करने से वहां लगातार बनी रहने वाली नारंगी धूल की समस्या कम हो सकती है, जिसका बुरा असर वातावरण और लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है।
PhD की डिग्री और कई जॉब ऑफर के बावजूद चिंगवारू ने ऑस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन में यूनिवर्सिटी ऑफ क्वींसलैंड के इंस्टीट्यूट ऑफ सस्टेनेबल मिनरल्स को ज्वाइन करने का फैसला किया है। वहां वे अपनी रिसर्च जारी रखेंगे और साथ ही इंडस्ट्री के साथ मिलकर खासकर टेलिंग्स से “बैटरी मेटल्स” निकालने पर काम करेंगे। चिंगवारू की कहानी इस बात का उदाहरण है कि कैसे इनोवेटिव रिसर्च नए संसाधन खोजने में और सालों से चली आ रही पर्यावरणीय समस्याओं को सुलझाने में मददगार हो सकती है।