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Budget 2025: गंभीर एवं अहम मुद्दों पर केंद्रित हो बजट

अब आर्थिक वृद्धि को रफ्तार देने का समय आ गया है वरना हालत बिगड़ जाएगी।

Last Updated- January 30, 2025 | 9:42 PM IST

भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए केंद्रीय बजट और भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति दो अहम घटनाएं होती हैं, जिन पर सबकी नजरें टिकी होती हैं। राजकोषीय और मौद्रिक दिशा तय करने वाली दोनों घटनाएं और उनके नतीजे अगले आठ दिन में हमारे सामने होंगे। वित्त वर्ष 2025-26 के लिए आम बजट 1 फरवरी को आएगा और मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) की तीन दिन की बैठक 7 फरवरी को खत्म होगी।

इतना तो तय है कि सरकार वित्त वर्ष 2025 में राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 4.9 प्रतिशत पर समेटने का अपना लक्ष्य हासिल कर लेगी। घाटा कम होकर 4.8 प्रतिशत रह जाए तो भी किसी को हैरत नहीं होगी। इससे सरकार वित्त वर्ष 2026 में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 4.5 प्रतिशत से नीचे लाने का लक्ष्य निर्धारित कर सकेगी। यह वास्तव में बड़ी उपलब्धि होगी मगर दिक्कत यह है कि देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार इस समय काफी सुस्त है। जुलाई-सितंबर तिमाही के दौरान जीडीपी में केवल 5.4 प्रतिशत वृद्धि हुई, जो उससे पहले की सात तिमाहियों का सबसे कम आंकड़ा था। कोविड महामारी से प्रभावित वित्त वर्ष 2020-21 में जीडीपी के 9.2 प्रतिशत तक पहुंच चुका राजकोषीय घाटा चालू वित्त वर्ष में घटकर 4.8 प्रतिशत तक पहुंच तो सकता है मगर इसके पीछे अधिक कर संग्रह के साथ व्यय में खासी कटौती तथा रिजर्व बैंक से मिलने वाले ऊंचे लाभांश का हाथ है।

कोविड महामारी के समय आए बजट को छोड़ दें तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के लिए यह अब तक का सबसे कठिन बजट होगा। राजकोषीय घाटा तो कम हो जाएगा मगर पूंजीगत व्यय घटाकर और तमाम तरह के कर बढ़ाकर ऐसा करते रहना आगे मुमकिन नहीं दिख रहा। ध्यान रहे कि पिछले साल अप्रैल से नवंबर तक पूंजीगत व्यय 5.13 लाख करोड़ रुपये रहा, जो 11.11 लाख करोड़ रुपये के बजट अनुमान का केवल 46 प्रतिशत था। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि वित्त वर्ष 2025 में केंद्र का पूंजीगत व्यय पिछले वित्त वर्ष की तुलना में लगभग 12 प्रतिशत कम है। राज्यों का कुल पूंजीगत व्यय भी वित्त वर्ष 2024 की तुलना में इस बार लगभग 5 प्रतिशत कम रहा है। उनका कहना है कि व्यय पिछले वित्त वर्ष के बराबर रहता तो सितंबर तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर कम से कम आधा प्रतिशत बढ़ जाती।

अब आर्थिक वृद्धि को रफ्तार देने का समय आ गया है वरना हालत बिगड़ जाएगी। उपभोक्ता मांग कमजोर पड़ गई है, विदेशी मुद्रा भंडार कम (27 सितंबर 2024 के 704.9 अरब डॉलर से घटकर 17 जनवरी 2025 को 623.98 अरब डॉलर) हो रहा है और रुपये में भी गिरावट देखी जा रही है। बैंकों से ऋण आवंटन में कमी भी सुस्ती का इशारा कर रही है। चालू वित्त वर्ष में 10 जनवरी तक बैंकों ने 8.3 प्रतिशत ज्यादा ऋण बांटा है, जो साल भर पहले के आंकड़े से बमुश्किल आधा है। पिछले वित्त वर्ष की तुलना में ऋण वृद्धि भी 11.5 प्रतिशत रही है, जो 2023-24 में 20.3 प्रतिशत थी। 2022-23 में 42 अरब डॉलर तक पहुंचा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पिछले वित्त वर्ष में घटकर 26.5 अरब डॉलर रह गया था और चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में बढ़कर 16.17 अरब डॉलर रहा। मगर विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक भारतीय बाजार से रकम निकालते जा रहे हैं। अंत में अमेरिका के नए राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की चुनौती है और चीन की अर्थव्यवस्था औद्योगिक उत्पादन तथा निर्यात के दम पर वापस चढ़ रही है। अक्टूबर-दिसंबर तिमाही में यह साल भर पहले के मुकाबले 5.4 प्रतिशत बढ़ गई, जो उम्मीद से बहुत ज्यादा आंकड़ा है। इन सब हालात में आर्थिक वृद्धि को रफ्तार देनी है और अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाना है तो बड़े सुधारों की व्यवस्था करनी होगी। मगर यह होगा कैसे?

कहा जा रहा है कि बजट में व्यक्तिगत करदाताओं के लिए आयकर घटाया जाएगा। कुछ साल पहले कॉरपोरेट कर की दर पुरानी कंपनियों के लिए 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत और नई कंपनियों के लिए 25 प्रतिशत से घटाकर 15 प्रतिशत कर दी गई थी। मगर क्या इसके बाद भारतीय कंपनियों ने भारी निवेश किया और रोजगार तैयार किए? बिल्कुल नहीं। ज्यादातर कंपनियों ने कर घटने से बची रकम का इस्तेमाल शायद अपना कर्ज चुकाने में किया है। सरकार बार-बार उनसे निवेश और क्षमता निर्माण के लिए कह रही है मगर कंपनियां किसी न किसी वजह से इसके लिए तैयार नहीं हैं। सरकार के सामने उनका भरोसा जीतने और उन्हें इसके लिए तैयार करने की चुनौती है।

नरेंद्र मोदी सरकार के दौर में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया प्रक्रिया और रियल एस्टेट नियामक प्राधिकरण जैसे बड़े सुधार किए गए हैं। अब सुधारों के दूसरे दौर का समय आ गया है। जीएसटी को दुरुस्त करना बेहद जरूरी है। अधिकारियों को नमकीन पॉपकॉर्न और कैरेमल वाले पॉपकॉर्न पर अलग-अलग कर लगाने के लिए माथापच्ची में वक्त बरबाद करने के बजाय इस काम को फौरन अंजाम देना चाहिए। आर्थिक वृद्धि लड़खड़ाई तो कर राजस्व पर भी चोट आएगी। पहले भी देखा गया है कि नॉमिनल जीडीपी में 10 प्रतिशत से कम वृद्धि हो तो कर संग्रह पर भी बिगड़ जाता है। करों के बारे में नजरिया भी सही करना होगा। कर का मौजूदा ढांचा बचत को वित्तीय तंत्र में नहीं पहुंचने दे रहा बल्कि उसे शेयर बाजार में भेज रहा है। रियल एस्टेट, सोना और शेयरों से लंबे समय में होने वाले पूंजीगत लाभ पर तो फायदा मिल रहा है मगर बॉन्ड में निवेश करने पर यह फायदा नहीं मिलता। फिर बॉन्ड बाजार कंपनियों को पूंजी मुहैया कराने का कारगर विकल्प कैसे बनेगा?

सरकार को डिजिटलीकरण, प्रत्यक्ष लाभ अंतरण और लाभांश के बाद अब विनिवेश पर ध्यान देना होगा। सरकार कुछ सार्वजनिक उपक्रमों में हिस्सेदारी बेचकर लाभ कमाने का सुनहरा अवसर खो चुकी है। उदाहरण के लिए मई 2020 और फरवरी 2024 के बीच इंडियन ओवरसीज बैंक का शेयर 10 गुना (7.25 रुपये से बढ़कर 71 रुपये प्रति शेयर) चढ़ गया था। उसका शेयर 71 रुपये के भाव पर अपने बुक वैल्यू का पांच गुना हो गया था और शायद उस समय वह दुनिया का सबसे महंगा बैंक था। मगर क्या सरकार उसी समय हिस्सेदारी बेचकर मुनाफा कमा पाई? नहीं। दूसरे क्षेत्रों में भी सरकार ऐसे कई मौके लपकने से चूक गई।

वित्त मंत्री ने 2021-22 में आईडीबीआई बैंक के साथ दो सरकारी बैंकों और एक सामान्य बीमा कंपनी के निजीकरण का प्रस्ताव रखा था। मगर मामला कहीं अटक गया है। हाल में खबरें आईं कि आईडीबीआई बैंक के लिए बोली मंगाई जा सकती हैं मगर निजीकरण की प्रक्रिया वित्त वर्ष 2026 में पूरी होगी। इसे पंचवर्षीय योजना न कहें तो क्या कहें!

अगर सरकार वृद्धि दर बढ़ाना चाहती है तो उसे पूंजीगत खर्च बढ़ाना चाहिए ताकि लोगों की जेब में पैसे आएं। पॉपकॉर्न तो पॉपकॉर्न ही रहेगा। क्या फर्क पड़ता है कि नमकीन है या कैरेमल वाला? हमें उसके बजाय असली मुद्दों पर ध्यान देना होगा।

(लेखक जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड में वरिष्ठ सलाहकार हैं)

First Published - January 30, 2025 | 9:42 PM IST

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