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नई दुनिया के लिए कमर कसे भारत

अमेरिका की संरक्षणवादी नीतियों और दुनिया की बदलती सूरत के बीच भारत को नई हकीकत के हिसाब से खुद को तैयार करना होगा। समझा रहे हैं 

Last Updated- April 08, 2025 | 11:02 PM IST
Industry
प्रतीकात्मक तस्वीर

मेरे एक मित्र 1990 के दशक में सॉफ्टवेयर सेवा कंपनी चला रहे थे और मार्केटिंग विश्लेषण करते थे, जिसमें भारत और अमेरिका की नामी-गिरामी कंपनियां उनकी ग्राहक थीं। एक बार मैंने उन्हें ऐसा एल्गोरिदम बनाने में मदद करने का प्रस्ताव दिया, जिससे मार्केटिंग विश्लेषण का उनका काम बेहद जल्दी हो जाएगा। जब मैंने कहा कि उससे विश्लेषण में लगने वाला 90% समय बच जाएगा तो उन्होंने हड़बड़ाकर कहा, ‘सबके सामने ऐसा मत बोलो भाई। हमारे बड़े क्लाइंट्स ने सुन लिया तो आधी कमाई बंद हो जाएगी!’ असल में मेरे मित्र की कमाई घंटे और टीम के हिसाब से होती थी। उनकी टीम में जितने लोग होते थे और किसी कंपनी के लिए विश्लेषण करने में टीम जितने घंटे लेती थी उसी हिसाब से उनकी फीस होती थी।

करीब दो दशक पहले का यह वाकया जब मेरे दिमाग में आया तो उसके साथ यह ख्याल भी आया कि 1990 के दशक में सस्ते श्रम से काम चलाने की जिस आदत का मैं विरोध करता था उसका खमियाजा हमें जल्द ही भुगतना पड़ सकता है। यह ख्याल तब और सताता है, जब मैं दुनिया भर के मीडिया में चल रही सुर्खियां देखता हूं:

‘तकनीकी उद्योग में छंटनी जारी है और इस साल 1,30,000 से ज्यादा आईटी कर्मचारी नौकरी गंवा चुके हैं।’ या इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली सुर्खी है, ’30 से 40 साल के बीच की उम्र वाले डिजाइनरों और फोटोग्राफरों के पास काम ही नहीं है..।’

जब मैंने ऐसे मामलों की तहकीकात की तो मुझे भरोसा होने लगा कि भारत में ये दिक्कतें अमेरिकी अर्थव्यवस्था की परेशानियों के कारण आई हैं। एक खबर देखिए, ‘अमेरिका के पास इस साल अगस्त में वेतन देने लायक रकम भी नहीं रहेगी..’

जब मैं ऐसी खबरें पढ़ता हूं और मुझे पता चलता है कि अमेरिका कर से जितना कमा रहा है उससे ज्यादा खर्च कर रहा है और कमी की भरपाई सरकारी बॉन्ड या ट्रेजरी बॉन्ड के जरिये रकम जुटाकर कर रहा है। यह भी पता चला कि पिछले कुछ दशकों में उसने बॉन्ड से इतनी रकम जुटाई है कि 2025 के आरंभ में सरकार पर 34 लाख करोड़ डॉलर से ज्यादा कर्ज हो चुका है। यह सोचकर ही डर लगने लगता है।

अमेरिका में गूगल (अल्फाबेट), माइक्रोसॉफ्ट, एमेजॉन, ओपनएआई (चैटजीपीटी), मेटा और ऐपल जैसी बड़ी निजी तकनीकी कंपनियां हैं, जिनका पूरी दुनिया में दबदबा है। मगर वह देश गले तक कर्ज में डूबा है। आम तौर पर जवाब यही होता है कि ये निजी कंपनियां हैं सरकार नहीं और उनका मुनाफा शेयरधारकों, संस्थापकों तथा अधिकारियों के बीच बंट जाता है। अमेरिकी सरकार को इस मुनाफे में से कुछ भी बतौर कर नहीं मिलता। इसलिए ये कंपनियां अमेरिकी हैं और नवाचार की दुनिया में अगुआ हैं मगर इससे सरकार को कमाई नहीं होती। अमेरिका और दुनिया के तमाम विचारकर इसी गुत्थी को सुलझाने में लगे हैं क्योंकि अमेरिका में ऐसे ही घाटा चलता रहा और भगवान न करे अमेरिका कर्ज नहीं चुका पाया तो पूरी दुनिया में हाहाकार मच जाएगा। चीन, जापान, ब्रिटेन, भारत और सऊदी अरब जैसे देश में विदेशी मुद्रा भंडार अमेरिकी डॉलर में ही है। अमेरिका ने चूक की तो डॉलर की कीमत खाक हो जाएगी, इन देशों का विदेशी मुद्रा भंडार साफ हो जाएगा और मुद्रा बाजार बदहवास हो जाएगा।

इससे आपूर्ति श्रृंखला भी बिगड़ सकती है, जिससे अमेरिका में मांग खत्म हो जाएगी और पूरी दुनिया खास तौर पर एशिया से निर्यात घट जाएगा। इसके मायने ये भी हैं कि तकनीकी ऑर्डर, सेवाओं की आउटसोर्सिंग और कच्चे माल के आयात पर चोट पड़ेगी, जिससे कई देशों को निर्यात से होने वाली कमाई घट जाएगी। भारत में तो आफत ही आ जाएगी क्योंकि अमेरिका से आईटी आउटसोर्सिंग के जरिये होने वाली कमाई एकदम कम हो जाएगी।

इस गुत्थी को समझने के लिए मीडिया में जब कुछ भी नहीं मिला तो मैं किताबों की दुनिया में गया और मुझे जो पता चला वह आपको भी बताता हूं। कई किताबें इस स्थिति से जुड़ी संभावनाओं और असर की पड़ताल करती हैं। दो अच्छे उदाहरण जॉर्ज फ्रीडमैन की ‘द स्टॉर्म बिफोर द काम’ और जॉन परकिंस की ‘द एंड ऑफ द डॉलर एंपायर’ में मिलते हैं। फ्रीडमैन ने इस किताब में कहा है कि 2020 के दशक में अमेरिका के भीतर आर्थिक और संस्थागत उथलपुथल होगी, जो पूरी दुनिया को हिलाएगी। परकिंस की किताब समझाती है कि डॉलर का दबदबा खत्म हुआ तो क्या होगा। कुछ किताबें यह भी बताती हैं कि भारत ऐसी स्थिति से कैसे निपट सकता है। ऐसी दो किताबें हैं पराग खन्ना की ‘द फ्यूचर इज एशियन’ और संजीव सान्याल की ‘इंडिया इन द एज ऑफ आइडियाज’। खन्ना का सुझाव है कि भारत को अपने आसपास के क्षेत्र में और भी घुलना-मिलना चाहिए,आपूर्ति श्रृंखला की कमान अपने हाथ में लेनी चाहिए तथा आर्थिक कूटनीति को पश्चिम से परे ले जाना चाहिए। सान्याल अपनी किताब में बताते हैं कि भारत की नीति निर्माण की प्रक्रिया खुद को वैश्विक अनिश्चितता के इस दौर के साथ कैसे ढाल रही है।

कम से कम एक किताब है, जो केवल यही बताती है कि भारत क्या कर सकता है और उसे क्या करना चाहिए – रघुराम राजन और रोहित लांबा की ‘ब्रेकिंग द मोल्ड: रीइमेजिनिंग इंडियाज इकनॉमिक फ्यूचर’।  इसमें भारत के लिए वृद्धि की विकेंद्रीकृत और जमीनी स्तर के नवाचार वाली नई राह सुझाई गई है, जो छोटे और मझोले उद्यमों (एसएमई) के अनुकूल व्यवस्था तैयार करने से हासिल हो सकती है। इसके साथ भारी पूंजी वाले उद्योगों को सब्सिडी देने के बजाय शिक्षा और कौशल में निवेश किया जाना चाहिए।

नई और कमजोर विश्व व्यवस्था की बात करते हुए किताब आगाह करती है कि चीन की तरह निर्यात पर बहुत अधिक निर्भर नहीं रहना चाहिए। लेखक कहते हैं कि नई दुनिया में अमेरिका जैसे पश्चिमी बाजार लगातार संरक्षणवादी होते जाएंगे। यह किताब पिछले साल डॉनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने से पहले ही छप चुकी थी और आज इसमें लिखी बात सच होती दिख रही हैं। ट्रंप के सारे बड़े काम संरक्षणवाद से जुड़े हैं चाहे अमेरिका आने वाले माल पर आयात शुल्क बढ़ाना हो या अमेरिका से जाने वाले माल पर दूसरे देशों से आयात शुल्क घटाने की मांग करना हो।

दोनों लेखक कहते हैं कि भारत को रचनात्मक देश बनना चाहिए, जो बड़े-बड़े उद्योगों का सपना न देखे बल्कि नीचे से ऊपर तक झटके झेलने के लायक बने क्योंकि बडे उद्योग दुनिया में हो रहे बदलाव की चपेट में आ जाते हैं। उनकी सलाह है कि भारत को सेवा के मामले में अपनी बढ़त, डिजिटल महारत और कर्मचारियों की भारी तादाद पर ध्यान लगाना चाहिए क्योंकि डॉलर का दबदबा या अमेरिका का एकाधिकार खत्म होने के बाद दुनिया में सबसे कीमती संपत्ति ये ही होंगी!

तो क्या भारत की आर्थिक रणनीतियों पर फिर सोचने और आने वाली नई दुनिया के लिए कमर कसने का वक्त आ गया है?

First Published - April 8, 2025 | 10:37 PM IST

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