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जिंदगीनामा: जलवायु परिवर्तन पर न्यायिक सक्रियता

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने 21 मार्च के एक आदेश का विस्तृत निर्णय अपलोड कर दिया है। इसमें पहली बार जलवायु परिवर्तन के विपरीत प्रभाव से बचाव को एक विशिष्ट अधिकार बताया गया है।

Last Updated- April 17, 2024 | 9:45 PM IST
जलवायु परिवर्तन पर न्यायिक सक्रियता, Judicial activism in the air

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में हाल में तापमान 38 डिग्री सेंटीग्रेड तक हो गया जिससे यह चेतावनी मिल रही है कि इस साल अच्छी गर्मियां पड़ने वाली हैं। ऐसे में दो न्यायिक फैसले जलवायु परिवर्तन को लेकर नया दृष्टिकोण देते हैं।

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने 21 मार्च के एक आदेश का विस्तृत निर्णय अपलोड कर दिया है। इसमें पहली बार जलवायु परिवर्तन के विपरीत प्रभाव से बचाव को एक विशिष्ट अधिकार बताया गया है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाले तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि विधि के समक्ष समता और समान संरक्षण से संबंधित अनुच्छेद 14 तथा जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित अनुच्छेद 21 इस अधिकार का अहम स्रोत हैं।

यहां से करीब 6,000 किलोमीटर दूर स्ट्रासबर्ग में यूरोपीय मानवाधिकार अदालत ने 2,000 से अधिक स्विस महिलाओं के एक समूह द्वारा दायर याचिका पर निर्णय दिया। ये सभी महिलाएं वरिष्ठ नागरिक थीं। यह फैसला जलवायु परिवर्तन को मानवाधिकार से जोड़ने के मामले में एक वैश्विक नजीर पेश करता हुआ प्रतीत होता है। न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि स्विस सरकार जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पर्याप्त कदम उठाने में नाकाम रही है और इस प्रकार उसने अपने नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन किया है। जलवायु से जुड़े कदमों को लेकर दिए गए इस निर्णय के खिलाफ अपील नहीं की जा सकती है।

दोनों निर्णयों में समानता नजर आती है लेकिन यह समानता सतही है। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय एक वाणिज्यिक पहलू का समाधान करता है। यह मामला राजस्थान और गुजरात में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (एक विशालकाय पक्षी जिसे जीआईबी कहा जाता है) के संरक्षण और सौर ऊर्जा डेवलपरों के ओवरहेड ट्रांसमिशन लाइन बिछाने के अधिकार से संबंधित था।

ताजा निर्णय जीवाश्म ईंधन के बजाय लोगों के स्वच्छ ऊर्जा के अधिकार को रेखांकित करता है और सर्वोच्च न्यायालय के 2021 के एक निर्णय को पलटता है जिसमें कहा गया था कि सभी ओवरहेड (ऊपर से गुजरने वाली) ज्यादा और कम वोल्टेज वाली बिजली की लाइनों को भूमिगत किया जाए ताकि उस क्षेत्र में उड़ने वाले जीआईबी प्रभावित न हों।

सरकार की अपील पर सर्वोच्च न्यायालय ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। वास्तविकता यह है कि बिजली की लाइन को जमीन के नीचे से ले जाने से सौर डेवलपरों की लागत बढ़ जाती। गत वर्ष विशेषज्ञ समिति ने कहा कि डेवलपरों को इन पक्षियों की बसाहट वाले इलाकों में चिड़ियों को भगाने वाले या एलईडी आधारित चेतावनी वाली डिस्क लगानी चाहिए।

यद्यपि यह कम लागत वाला उपाय है लेकिन इनकी स्थापना के लिए मंजूरी हासिल करने में दिक्कत हो सकती है और इन उपकरणों के लिए सक्षम विक्रेताओं की भी कमी हो सकती है। गत वर्ष नवंबर में नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने एक आवेदन किया कि सौर ऊर्जा की लाइन को अनिवार्य तौर पर भूमिगत करने की व्यवस्था से देश का कार्बन उत्सर्जन प्रभावित होगा।

इस तर्क में दम है लेकिन उन पक्षियों का क्या जो एक संरक्षित प्रजाति से हैं? यह कहा जा सकता है कि चूंकि खुले वनों में केवल 200 जीआईबी बचे हैं इसलिए उन्हें संरक्षित करने का प्रयास नहीं किया जाना चाहिए। परंतु कल्पना कीजिए कि अगर प्रोजेक्ट टाइगर के पहले जब केवल 2,000 बाघ बचे थे, तब भी यही दलील दी जाती तो क्या होता?

यहां अगर वैश्विक तापवृद्धि का व्यापक प्रश्न सामने रखें तो किसी भी प्रजाति का विलुप्त होना पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ता है और इसके ऐसे नुकसानदेह परिणाम हो सकते हैं जो अभी नजर नहीं आ रहे हैं। मलेरिया, चिकनगुनिया और डेंगू के मामले इसलिए बढ़े कि छिपकलियों और चिड़ियों की आबादी कम होने से मच्छर बढ़े जिन्हें वे खाती हैं। इसकी वजह से हमें अधिक नुकसानदेह रासायनिक पदार्थों की मदद से मच्छर भगाने पड़ते हैं। इससे वैश्विक ताप बजट में भी इजाफा होता है।

पर्यावरण से जुड़ा कोई भी उपाय अपने आप में संपूर्ण नहीं होता है लेकिन सरकार जोखिम को संतुलित कर सकती है। हम प्रोजेक्ट टाइगर की उपलब्धियों पर गर्व करते हैं लेकिन इसके कारण आबादी का जो विस्थापन हुआ उस पर ध्यान नहीं देते। कुछ वन्य जीव अभयारण्य मसलन कान्हा और कॉर्बेट में जमीन गंवाने वाले स्थानीय लोगों को गाइड या ट्रैकर के रूप में प्रशिक्षित किया जाता है। सौर ऊर्जा डेवलपरों की दुविधा से कोई नया हल निकाला जा सकता था जहां सरकार व्यय में साझेदारी करती और स्वच्छ ऊर्जा तथा पक्षियों के संरक्षण के रूप में दोनों काम हो जाते।

प्रश्न यह है कि सबसे बड़ी अदालत का ताजा निर्णय जो संवैधानिक मूल्यों के साथ विकास के मुद्दे को रेखांकित करता है, वह जलवायु न्याय तक नागरिकों की पहुंच में कितना इजाफा करेगा? यह निर्णय 1980 के दशक के न्यायशास्त्र पर आधारित है। एमसी मेहता बनाम भारत सरकार का प्रसिद्ध मामला भी इसका हिस्सा है जिसके तहत कहा गया था कि प्रदूषण रहित माहौल में जीवन बिताना अनुच्छेद 21 के तहत मूल अधिकारों का हिस्सा है। इसके बावजूद भारत के शहर दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में प्रमुखता से नजर आते हैं। यह निर्णय ये सवाल भी खड़ा करता है कि सरकार बढ़ती गर्मी और ग्लेशियर पिघलने के कारण आने वाली बाढ़ से होने वाली मौतों को कैसे रोकेगी। यह वैश्विक तापवृद्धि का सबसे अहम संकेत है।

ग्लेशियरों का पिघलना ही वह वजह थी जिससे स्विस महिलाओं के समूह ने मानवाधिकार न्यायालय का रुख किया था। उनका कहना था कि स्विस सरकार ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने में कामयाब नहीं रही। वहां की सरकार ने कहा था कि वह 2030 तक उत्सर्जन को 1990 के स्तर के 50 फीसदी तक कम करेगी लेकिन जनमतसंग्रह करके कड़े उपायों को नकार दिया गया। यह मामला गत गर्मियों में लगे जलवायु लॉकडाउन की वजह से अदालत में गया क्योंकि इससे कई बुजुर्ग महिलाओं को घरों में कैद रहना पड़ा।

इस फैसले का वास्तविक असर स्पष्ट नहीं है। कुछ टीकाकारों का मानना है कि इसके बाद राष्ट्रीय अदालतों में वाद और वित्तीय जुर्माना लग सकता है। इसे ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, पेरू और दक्षिण कोरिया जैसे देशों के लिए एक चेतावनी की तरह देखा जा रहा है। नॉर्वे में तेल और गैस खनन अधिकारों को लेकर एक मुकदमा चल रहा है।

दिलचस्प बात है कि स्ट्रासबर्ग की अदालत ने छह पुर्तगाली युवाओं द्वारा 32 यूरोपीय सरकारों के खिलाफ लाए गए मामले को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि सरकारों का कार्बन उत्सर्जन देशों की सीमाओं के परे लोगों को प्रभावित कर सकता है लेकिन इसके चलते कई जगहों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। न्यायालय सही हो सकता है लेकिन युवाओं ने मुद्दे की सही पहचान की।

जलवायु परिवर्तन संबंधी कदम केवल किसी एक देश की चिंता का विषय नहीं हो सकते, इनके लिए वैश्विक सहयोग और कदमों की जरूरत है। जैसा कि ये फैसले बताते हैं जलवायु परिवर्तन के मामले में कीमत युवाओं, बुजुर्गों, महिलाओं, बेजुबानों और जीव-जंतुओं को चुकानी पड़ रही है।

First Published - April 17, 2024 | 9:29 PM IST

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