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उत्सर्जन नियंत्रण में ऊहापोह के क्षण

वैश्विक ताप वृद्धि और कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण की स्थिति बहुत बुरी नजर आ रही है मगर आगे चलकर हालात सुधरने की संभावना भी दिख रही है। बता रहे हैं

Last Updated- March 17, 2025 | 11:29 PM IST
India faces the highest risk from climate change's impact, says IPCC

जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की बात करें तो बहुत निराशा दिख रही है। चिंता की चार वजहें नजर आ रही हैं।

1. हममें से कई लोग डेनियल येरगन की 1990 में आई किताब ‘द प्राइज’ पढ़ते हुए बड़े हुए, जिसमें तेल उद्योग की बात की गई है। हाल ही में फॉरेन अफेयर्स पत्रिका में लिखते हुए येरगन/ऑर्जाग/ आर्या ने दलील दी कि ऊर्जा का बदलाव सही ढंग से नहीं हो रहा है। यह बात ट्रंप के पद संभालने से पहले ही कह दी गई थी। वे हमें याद दिलाते हैं कि दुनिया भर में इस्तेमाल हो रही ऊर्जा में हाइड्रोकार्बन की हिस्सेदारी बहुत कम घटी है। उनका हिस्सा 1990 में 85 फीसदी था और आज भी 80 फीसदी है।

2. दुनिया में आजकल चल रहे लोकलुभावनवाद और जलवायु परिवर्तन के बीच अजीब रिश्ता है। अब हम पीछे मुड़कर देख और समझ सकते हैं कि इंटरनेट ने हमें सोशल मीडिया दिया, जिसने लोगों की सोच को नुकसान पहुंचाया। उसने अतिवाद या चरमपंथ को हवा दी। इससे लोग षड्यंत्र के सिद्धांतों और छद्म विज्ञान के बहकावे में आ सकते हैं तथा संस्कृतिकरण में रुकावट आती है। ट्रंप के शासन में अमेरिकी सरकार कार्बन कम करने के विरोधी रहे रूस और सऊदी अरब की सरकारों के साथ खड़ी हो गई है।

3. कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन पर नियंत्रण दुनिया भर की भलाई के लिए है। इसके लिए समझदारी भरी विश्व व्यवस्था की जरूरत है, जहां सभी देशों को इस दिशा में कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए विदेश नीति का इस्तेमाल किया गया। मगर ट्रंप, व्लादिमीर पुतिन, शी चिनफिंग जैसे गुस्सैल नेताओं की सरकारें इस माहौल में अपने फायदे के लिए मनमानी कर रही हैं, जिससे विदेश नीति और आर्थिक कूटनीति जैसे बारीक काम करना बहुत मुश्किल हो गया है। दुनिया यूक्रेन पर पुतिन के हमले और ताइवान या भारत पर शी के हमलों की आशंका जैसी ज्यादा जरूरी समस्याओं से जूझ रही है।

4. दुनिया में गर्मी बढ़ रही है और खबरें तथा आंकड़े बता रहे हैं कि इंसानी समाज पर इसके कितने बुरे असर हो रहे हैं। वैज्ञानिकों ने अरसे तक चेतावनी दी कि दुनिया का औसत तापमान औद्योगीकरण से पहले वाले दौर की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने दिया जाए। अब लगता है कि 1.5 डिग्री नहीं बल्कि 2 डिग्री सेल्सियस से भी ज्यादा इजाफा हो जाएगा।

नीतिगत कदमों के जरिये हमें इतना समझदार बनाने वाले सभी शानदार लोग अब डर और हताशा में हैं। इस स्थिति को हम कैसे समझें? आगे क्या रास्ता है? क्या हम जलवायु परिवर्तन की विभीषिका की ओर बढ़ रहे हैं या कुछ बेहतर किया जा सकता है?

बहुत संभव है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस या 2 डिग्री सेल्सियस की दीवार भी टूट जाए। ऐसे में जलवायु के हिसाब से खुद को ढालना जरूरी है। कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन को रोकना है या नहीं और रोकना है तो कैसे रोकना है, इस पर आप कुछ भी सोचते हों यह समझना जरूरी है कि दुनिया गर्म हो रही है और हमारी जिंदगी पर इसके बहुत बुरे प्रभाव होने जा रहे हैं। गर्म होती दुनिया का हर व्यक्ति, हर कंपनी और हर सरकारी संगठन की नीतियों और तैयारियों पर दूरगामी प्रभाव होगा। मसलन हम सभी को तटवर्ती इलाकों में रियल एस्टेट के दामों पर बहुत सतर्कता बरतनी चाहिए।

कार्बन कम करने का क्या? क्या मामला हाथ से निकल गया? हम हार मान लें, कोयला जलाएं और मंगल पर जिंदगी की योजना बनाएं? हमें यह तो मानना होगा कि आज बहुत मुश्किलें हैं मगर चार वजहों से भविष्य बेहतर हो सकता है।

1. अतीत में वैज्ञानिक तर्क देकर बताया गया कि कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन से भविष्य में नुकसान होगा। आने वाले खतरे को बुद्धिमान लोग ही समझ सकते थे। मगर 2025 में हर किसी को दुनिया में हो रहे बदलाव दिख रहे हैं। भारत में कृषि और मवेशियों को गर्म रातों से नुकसान हो रहा है। अब यह किताबी बात नहीं रह गई बल्कि हकीकत बन गई है। इसलिए सोशल मीडिया के जरिये थोपा जा रहा लोकलुभावनवाद और प्रचार वाकई दिक्कत है और ज्यादा से ज्यादा लोग इसे समझ भी रहे हैं।

2. येरगन/ऑर्जाग/आर्या का पलटकर देखना और निराश होना बनता है। मगर भविष्य के लिए हमें बहुत बड़े पैमाने पर सोचना होगा। नवीकरणीय ऊर्जा और भंडारण की कीमतें क्षमता बढ़ने के साथ घटती जाएंगी। अमेरिका और रूस की सरकारें अब इसे रोक नहीं सकतीं। यह सही है कि अतीत में धीमा फायदा हुआ है मगर निकट भविष्य में भारी लाभ होने जा रहा है। भारत में तेज धूप होती है और कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन कम करने से परे अपना हित सोचें तो भी स्वच्छ ऊर्जा ही रास्ता है।

3. यह न माना जाए कि अमेरिकी दक्षिणपंथ हमेशा रहेगा। जनमत सर्वेक्षण, उपभोक्तों के भरोसे के पैमाने और वित्तीय बाजार बता रहे हैं कि उम्मीद किस तरह घट रही है। हो सकता है कि 2026 में विधायिका का नियंत्रण दूसरे हाथों में चला जाए। 2026 के चुनाव नतीजे न सोचें तो भी अमेरिकी दक्षिणपंथ का चरमवाद उन लोगों को लोकतंत्र और जन नीतियों की अहमियत समझा देगा, जो अभी तक सोशल मीडिया के प्रभाव में अतिवाद को बढ़ावा दे रहे थे। उम्मीद है कि आगे बेहतर दौर आएगा।

4. लंबे अरसे तक कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन के साथ ‘दुनिया के लोगों की भलाई’ और ‘साथ में आने वाली समस्याओं’ जैसे जुमले सुनाई देते रहे। श्रीलंका का हित इसके बेरोकटोक उत्सर्जन में है क्योंकि वैश्विक उत्सर्जन में उसका बहुत कम हाथ है। मगर भारत जैसे बड़े देश के लिए हिसाब बदल जाता है। वैश्विक उत्सर्जन में 10 फीसदी भारत से ही आता है। भारत के लिए उत्सर्जन कम करना ही सही है क्योंकि बढ़ती गर्मी इसकी आबादी को बहुत नुकसान पहुंचा रही है। यहां उत्सर्जन घटाना महंगा भी नहीं पड़ रहा। दुनिया के चार बड़े आर्थिक खेमों – अमेरिका, चीन, यूरोपीय संघ और भारत के लिए यह बात मायने रखती है। अमेरिका अभी सियासत में फंसा है मगर बाकी तीनों नहीं। उदाहरण के लिए यूरोपीय संघ और ब्रिटेन में कार्बन बॉर्डन टैक्स पर अभियान चलता रहेगा।

First Published - March 17, 2025 | 10:02 PM IST

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