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Opinion: वैश्विक व्यापार और एफडीआई के पुनर्गठन की प्रक्रिया

तीसरे वैश्वीकरण की प्रक्रिया में धीमे लेकिन गहरे बदलाव सामने आए हैं। वैश्वीकरण के पुराने अनुभवों को याद करते हुए तथा उनकी तुलना के साथ जानकारी प्रदान कर रहे हैं अजय शाह

Last Updated- January 24, 2024 | 9:01 PM IST
Foreign investors are again betting in the loan market, expectation of reduction in interest rates ऋण बाजार में फिर दांव लगा रहे विदेशी निवेशक, ब्याज दरों में कमी की उम्मीद

‘दूसरे वैश्वीकरण’ की विशेषताओं में एक थी विकसित अर्थव्यवस्थाओं के लिए अपनी परिधि में बिना शर्त अबाध पहुंच, जो विश्व अर्थव्यवस्था के मूल में है। ‘तीसरा वैश्वीकरण’ इस पहुंच को विदेशी नीत और सैन्य सुसंगतता के क्षेत्र में अधिक सशर्त बनाता है।

नए आंकड़े दिखाते हैं कि तीसरा वैश्वीकरण इतने बड़े पैमाने पर है कि वह व्यापार और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को भी पुनर्गठित कर रहा है। यह घटनाक्रम भारतीय विदेश नीति को लेकर दिलचस्प पहेली प्रस्तुत करता है। कंपनियों की रणनीतिक विचार प्रक्रिया में इन बातों को भी शामिल किया जाना चाहिए। कई लोग सोचते हैं कि वैश्वीकरण एक आधुनिक अवधारणा है।

बहरहाल, पुराने दिनों में सरकारें लोगों की नैसर्गिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करती थीं: वस्तुओं, सेवाओं, श्रम, पूंजी और विचारों के सीमा पार आवागमन पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं था। उस समय दिक्कत यह थी कि लागत भौगोलिक दूरी से संबद्ध थी। पहला वैश्वीकरण स्वर्ण युग था और वह स्वेज नहर (1869) से प्रथम विश्व युद्ध (1914) तक विस्तारित था। उस समय भाप इंजन वाले पोत, टेलीग्राफ और स्वेज नहर ने सीमा पार गतिविधियों में काफी इजाफा किया था।

बीसवीं सदी में राष्ट्रवाद का उभार और पतन देखने को मिला। सन 1980 के दशक के आरंभ तक सीमापार गतिविधियां कुछ हद तक 1914 के स्तर तक पहुंची थीं। दूरसंचार तकनीक, कंटेनर पोत, अधिक चौड़ाई वाले विमानों और आधुनिक वित्त व्यवस्था ने सीमा पार गतिविधियों को असाधारण स्तर तक बढ़ा दिया।

दूसरे वैश्वीकरण के बेहतरीन दिनों में इससे जुड़े प्रमुख देशों ने संभवत: उन देशों को भी आर्थिक या तकनीकी मदद मुहैया कराई जो शायद शत्रुतापूर्ण रुख रखते थे। कमजोर नीतिगत दल सशंकित थे और उन्होंने अपने-अपने देश के नागरिकों के लिए सीमा पार की आजादी को राज्य की वार्ता का विषय माना। उनमें एक आशावादी दृष्टिकोण यह था कि कारोबार में सभ्यता आ रही थी और हर देश निश्चित तौर पर एक अच्छे उदार लोकतंत्र में तब्दील होने वाला था। ऐसे में प्राय: शत्रु राष्ट्रों के साथ ज्ञान को साझा करने की परंपरा आरंभ हुई।

हाल के वर्षों में सीमा पर गतिविधियों की सीमाएं तय की गई हैं। तीसरा वैश्वीकरण 2018 के बाद की अवधि में घटित हुआ और इस दौरान उन देशों को सीमित प्रमुखता मिली जिनकी विदेश नीति और सैन्य रुख शत्रुतापूर्ण रहे हैं। वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का सबसे अधिक हिस्सा प्रमुख आर्थिक शक्ति वाले देशों के पास है। वे एक दूसरे के साथ पूरा वैश्वीकरण करते हैं किंतु अमित्र राष्ट्रों पर सीमाएं लाद देते हैं।

अमेरिका के वस्तु और सेवा आयात में चीन की हिस्सेदारी नाटकीय ढंग से बढ़ी और वह सात फीसदी से बढ़कर 22 फीसदी पर पहुंच गई। 2018 से इसमें तेज गिरावट आई है। अब यह 14 फीसदी के साथ 2003 के स्तर पर है। शी चिनफिंग की रणनीति ने चीन को दोबारा वहीं पहुंचा दिया है जहां वह 20 वर्ष पहले था। याद अमेरिका के आयात में भारत का योगदान केवल 2.61 फीसदी है। छह वर्षों में चीन के निर्यात में आई गिरावट भारत के अमेरिका को होने वाले वर्तमान निर्यात का 2.7 गुना है।

मैकिंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट का एक नया पर्चा, ‘जियोपॉलिटिक्स ऐंड जियोमेट्री ऑफ ग्लोबल ट्रेड’ (जनवरी 17, 2024) तीसरे वैश्वीकरण को लेकर अंत:दृष्टि प्रदान करता है। यह अंतरराष्ट्रीय संबंधों की एक तकनीक के जरिये अद्यतन व्यापार आंकड़ों को एक साथ लाता है। दोनों देशों के बीच विदेश नीति की संबद्धता को इस बात से आंका जाता है कि वे संयुक्त राष्ट्र में उन मामलों में किस हद तक एक समान मतदान करते हैं जिन्हें अमेरिकी विदेश विभाग द्वारा ‘महत्त्वपूर्ण’ घोषित किया जाता है। इस आधार पर देखें तो हर देश के जोड़े की एक ‘भूराजनीतिक दूरी’ होती है जिसे शून्य से 10 के पैमाने पर मापा जाता है। उदाहरण के लिए अमेरिका और दक्षिण कोरिया के बीच की दूरी 2 है जबकि जर्मनी और रूस के बीच की दूरी 9 है।

पर्चा बताता है कि ज्यादातर विश्व व्यापार उन देशों के बीच होता है जिनकी दूरी करीब 3.5 होती है। चीन जरूर इसका अपवाद है जो 5.5 की दूरी के साथ भी बहुत अधिक व्यापार करता है। वैश्विक व्यापार 2017-2023 के बीच पुनर्गठित हुआ और यह तीसरे वैश्वीकरण को दर्शाता है। कुछ अहम देशों की व्यापार भार वाली भूराजनीतिक दूरी में कमी आई। चीन चार फीसदी ऋणात्मक, अमेरिका 10 फीसदी ऋणात्मक, जर्मनी 6 फीसदी ऋणात्मक और यूनाइटेड किंगडम 4 फीसदी ऋणात्मक हुआ। यह पुनर्गठन अभी पूरा नहीं हुआ है। आज के एफडीआई की आवक कल के व्यापार का अनुमान पेश करती है। चीन में एफडीआई 70 फीसदी घटा है और रूस में 98 फीसदी। ऐसे में संभव है कि तीसरे वैश्वीकरण का पुनर्गठन भविष्य में और गहरा होगा।

भारत की चीन के साथ अच्छी खासी व्यापार संबद्धता है जिसके साथ सम्मान से पेश आना होगा क्योंकि कोई भी अचानक आने वाली उथलपुथल अनुत्पादक साबित हो सकती है। शेष की बात करें तो वस्तु, सेवा, जनता, पूंजी और विचारों के स्तर पर भारत के लोगों की विदेशी संबद्धता प्रमुख अर्थव्यवस्था वाले देशों के साथ है। ऐसे में भारत के हित यथास्थिति वाली शक्ति बने रहने में है जो प्रमुख देशों के साथ काम करे और आने वाली सदी में आर्थिक तरक्की हासिल करे। लोगों के हित धीरे-धीरे राज्य में व्याप्त होने की संभावना है। धीरे-धीरे विदेश नीति और सैन्य नीति का उभार हो सकता है जो प्रमुख देशों के इस तीसरे वैश्वीकरण के नीतिगत परिदृश्य में भारतीयों के हित दिखाए।

नीतिगत उपकरणों पर सरकार का नियंत्रण है लेकिन एफडीआई और व्यापार निजी कंपनियों के बीच होता है। ऊपर जिस पुनर्गठन की बात कही गई है वह बदलती दुनिया के प्रति वैश्विक कंपनियों की प्रतिक्रिया से संबद्ध है, न कि अधिकारियों की केंद्रीय योजना के प्रति। दूसरे वैश्वीकरण में कंपनियों ने अलोकतांत्रिक देशों के साथ संबद्धता के जोखिम का ध्यान नहीं रखा। उनकी अंगुलियां जलीं और अब वे अपने वैश्विक कारोबार पर दोबारा ध्यान दे रहे हैं।

कई कंपनियां निरंकुश हैं और अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र की परवाह नहीं करती हैं। परंतु अच्छी कंपनियां निर्यात करती हैं और सर्वश्रेष्ठ कंपनियां विदेशों में प्रत्यक्ष निवेश करती हैं। इसलिए बेहतरीन भारतीय कंपनियां वैश्वीकरण से पूरी तरह संबद्ध हैं। इन कंपनियों की रणनीतिक सोच में विभिन्न देशों की राजनीतिक प्रणाली, अलोकतांत्रिक देशों में कारोबारी सुगमता से जुड़े जोखिम तथा स्थापित देशों द्वारा तय किए जाने वाले नियमों में परिवर्तन को लेकर अधिक बेहतर समझ पैदा करनी होगी।

(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published - January 24, 2024 | 9:01 PM IST

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