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तकनीकी तंत्र: बदलाव वाले चक्र के क्या हैं मायने

वास्तव में प्रतिस्पर्धा के अभाव में कारोबार और कारोबारी लापरवाह और आलसी हो जाते हैं, वहीं सेवा प्रदाताओं के मानक निम्न स्तर के हो जाते हैं।

Last Updated- August 21, 2023 | 9:27 PM IST
भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर अगले वित्त वर्ष 7 फीसदी!, Indian economy likely to expand at around 7% in FY25, says FinMin

कुछ दिन पहले सोशल मीडिया पर ‘मेक इन इंडिया’ का बेहद नकारात्मक प्रचार-प्रसार देखा गया। एक युवा मोटरसाइकिल रेसर श्रेयस हरीश, मद्रास मिनीजीपी सर्किट पर एक बेहद घातक दुर्घटना का शिकार हो गए। बाइक चलाने वालों का कहना था कि अगर हरीश का क्रैश हेलमेट अगर अंतरराष्ट्रीय रेसिंग मानक के अनुरूप होती तब चोट इतनी घातक नहीं होतीं।

लेकिन, मेक इन इंडिया को बढ़ावा देने के लिए, क्रैश हेलमेट पर बहुत अधिक आयात शुल्क लगाया गया है और प्रतिस्पर्धा न होने के चलते भारतीय हेलमेट निर्माता अधिक गुणवत्ता का लक्ष्य रखने की जहमत नहीं उठा पाते हैं।

हालांकि यह विशेष घटना दुखद हो सकती है, लेकिन इसकी वजह से जो विमर्श शुरू हुआ उसको लेकर किसी को हैरान नहीं होना चाहिए। वास्तव में प्रतिस्पर्धा के अभाव में कारोबार और कारोबारी लापरवाह और आलसी हो जाते हैं, वहीं सेवा प्रदाताओं के मानक निम्न स्तर के हो जाते हैं। निर्माता भी लागत कटौती करते हैं। इसके अलावा निश्चित बाजारों और प्रतिस्पर्धा के अलावा को देखते हुए कारोबार को जितना शुल्क लेना चाहिए, वे उससे अधिक शुल्क लेते हैं।

उदारीकरण से पहले के दौर को देख चुके भारतीयों के लिए यह सैद्धांतिक और महज कोरी बात नहीं है। वर्ष 1947 और 1991 के बीच भारत की आर्थिक नीति ने अलगाववाद के एक स्पष्ट रुझान का पालन किया। लाइसेंसिंग के रूप में लालफीताशाही बढ़ गई और इसके साथ ही आयात शुल्क बढ़ गया और एक के बाद एक वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

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बहुत कम कंपनियों के पास विनिर्माण लाइसेंस थे और नवाचार रुक गया था। उदाहरण के तौर पर साइकिल लैंप (केवल लैंप न कि साइकल) के एक नए डिजाइन के लिए लाइसेंस की आवश्यकता थी। इसके अलावा, एक के बाद एक प्रमुख क्षेत्रों, बैंकों, विमानन, खनन, दूरसंचार क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और यह सरकारी एकाधिकार में बदल गया। इसने प्रतिस्पर्धा को और भी कम कर दिया।

30 से अधिक वर्षों तक भारतीयों को दो कार मॉडलों के बीच एक विकल्प मिलता था और किसी भी संभावित कार-मालिक को पहले ही जमा राशि देनी पड़ती थी और गाड़ी के आने के लिए महीनों तक इंतजार करना पड़ता था। एक नए टेलीफोन कनेक्शन को सक्रिय होने में तीन साल लग जाते थे और यह आमतौर पर वैसे भी काम नहीं करता था। यदि किसी को विमान सेवाएं लेने की आवश्यकता पड़ती थी तब इंडियन एयरलाइंस का उपयोग करने के अलावा कोई चारा नहीं था और इसका किराया दुनिया की किसी भी अन्य प्रमुख वैश्विक विमानन कंपनियों की तुलना में अधिक होता था।

जिन कारों की बात की जा रही है वे 50 साल पुराने डिजाइन वाली थीं। टेलीफोन सेवा दुनिया के मुकाबले सबसे महंगी होने के साथ ही गुणवत्ता में सबसे खराब थी। भारत में बनी लगभग हर चीज घटिया थी। बोतल के कैप को काटना पड़ता था और इसके बाद फिर से बोतल को ठीक से बंद नहीं किया जा सका। बेशक, इससे शराब की अधिक बिक्री हुई। प्लग, प्लग पॉइंट में नहीं जाते थे।

किसी औसत फ्लैट की दीवार में एक कील ठोकना एक मुश्किल काम था और इसके लिए दीवार में लकड़ी के प्लग को चिपकाना और फिर लकड़ी में कील ठोकनी पड़ती थी क्योंकि प्लास्टर की गुणवत्ता इतनी खराब थी कि यह कील पकड़ ही नहीं पाता था।

अधिकांश घरेलू उपकरण उपलब्ध नहीं थे। उन दिनों कोई माइक्रोवेव नहीं था, कोई वॉशिंग मशीन नहीं थी, कोई डिशवॉशर नहीं था, कोई रेसिंग साइकल नहीं थी, कोई फैंसी डिजाइनर कपड़े नहीं थे और न ही कोई वॉकमैन था। दरअसल आयात बेहद मुश्किल था।

आयात लाइसेंस की आवश्यकता के अलावा, विदेशी मुद्रा काफी नियंत्रण था और कई वस्तुओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। विदेश यात्रा करने वाले एक भारतीय को सालाना 50 डॉलर का भत्ता मिलता था। यहां तक कि विदेशों में शीर्ष शैक्षणिक संस्थानों में छात्रवृत्ति पाने वाले प्रतिभाशाली लोगों को भी इसी वजह से दिन में तीन बार खाना खाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता था।

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नतीजतन, 1991 तक अर्थव्यवस्था की हालत बेहद खस्ता हो गई। भारत द्वारा विदेशी भुगतान में लगभग चूक के कारण जैसे-जैसे उदारीकरण शुरू हुआ, उपभोक्ताओं को धीरे-धीरे अहसास होने लगा कि वास्तव में उन्हें किस तरह की कमी देखनी पड़ी। लगभग चमत्कारिक तरीके से प्रतिस्पर्धा की अनुमति मिलने के बाद एक के बाद एक सभी क्षेत्रों की गुणवत्ता में सुधार हुआ और इसके बाद इस क्षेत्र में नए लोगों ने बेहतर गुणवत्ता के साथ ही कम कीमतें भी देनी शुरू कर दीं।

दुनिया का सबसे महंगा दूरसंचार बाजार होने के बाद भारत अचानक सबसे सस्ते बाजार में बदल गया। तीन कार निर्माताओं के तीन कार मॉडल के बजाय एक दर्जन से अधिक वाहन कंपनियों के 100 से अधिक मॉडलों का विकल्प मिलने लगा था। छात्र निजी बैंकों से ऋण ले सकते थे और पढ़ाई के लिए विदेश जा सकते थे, भले ही उनका ताल्लुक किसी समृद्ध पृष्ठभूमि से न हो।

वर्ष 1993 में सरकार ने बजट में रुपये को पूरी तरह से परिवर्तनीय बनाने का वादा भी किया था। ऐसा होने के 30 साल बाद आर्थिक नीति पूरी तरह से बदल गई है। अधिक से अधिक आयात पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है, या लाइसेंस का प्रावधान करने के साथ ही उच्च आयात शुल्क लगाया जा रहा है। विदेशी खर्च पर करों के साथ मुद्रा नियंत्रण का रुझान बढ़ रहा है। भारत के दशकों के अनुभव को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह सब कुछ अच्छा नहीं होने जा रहा है।

First Published - August 21, 2023 | 9:27 PM IST

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