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वैश्विक व्यापार में अनिश्चितता और पूंजी लागत में वृद्धि से FDI पर दिख रहा दबाव

अमेरिका का बजट घाटा बढ़कर GDP के 6% से अधिक हो गया है, जबकि पिछले 50 वर्षों का औसत 3.8% रहा है। बता रहे हैं राजेश कुमार

Last Updated- June 23, 2025 | 10:32 PM IST
FDI

हाल में जारी आंकड़ों के अनुसार भारत में खुदरा मुद्रास्फीति दर कम होकर मई में 2.8 फीसदी रह गई। यह पिछले 75 महीनों का सबसे निचला स्तर है। खुदरा मुद्रास्फीति में हुई भारी कमी को देखते हुए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने 6 जून को रीपो दर में 50 आधार अंक की कमी कर दी। यह उम्मीद से बड़ी कमी थी क्योंकि बाजार और विशेषज्ञ रीपो दर 25 आधार अंक घटने की उम्मीद कर रहे थे।

रीपो दर में बड़ी कटौती करने के साथ एमपीसी ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि आर्थिक वृद्धि को सहारा देने के लिए अब उसके पास अधिक गुंजाइश नहीं बची है। निजी क्षेत्र के कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि चालू वर्ष में मुद्रास्फीति आरबीआई के अनुमान 3.7 फीसदी से कहीं कम रहेगी। उनके अनुसार मुद्रास्फीति कम रहने से नीतिगत दरों में कमी की और गुंजाइश बन जाएगी। नीतिगत दर कम रहने से ऋणों पर ब्याज कम हो जाएगा और आर्थिक गतिविधियों को मदद मिलेगी मगर पूंजीगत प्रवाह पर इसके प्रभाव और बाहरी वित्तीय स्थिति पर पैनी नजर रखनी होगी। इजरायल-ईरान के बीच युद्ध पर भी नजरें टिकी रहेंगी। इस युद्ध से निकट अवधि में निवेशक जोखिम लेने से दूर रह सकते हैं।

वर्ष 2025 की शुरुआत से 10 वर्ष की परिपक्वता अवधि के सरकारी बॉन्ड पर यील्ड लगभग 50 आधार अंक कम हो गई है, लेकिन अमेरिका के 10 वर्ष की अवधि के सरकारी बॉन्ड पर यील्ड हाल के महीनों में बढ़ गई है। इसका नतीजा यह हुआ कि इन दोनों बॉन्ड के बीच अंतर कम होकर 2 फीसदी से भी कम रह गया है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय बॉन्ड में निवेश करने के लिए विदेशी निवेशकों को अधिक फायदा नजर नहीं आ रहा है। रुपये में सालाना 2 फीसदी से कम गिरावट (जिसकी आशंका हमेशा रहती है) भी विदेशी निवेशकों को बड़ा झटका दे सकती है। उदाहरण के लिए कोविड महामारी के दौरान 2020 में यील्ड में अंतर 5 फीसदी से अधिक था।

यह अंतर दो कारणों से कम हो रहा है। पहला कारण यह है कि कोविड महामारी के बाद अमेरिका सहित पूरी दुनिया में मुद्रास्फीति काफी बढ़ गई। इससे अमेरिकी फेडरल रिजर्व सहित दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों को नीतिगत दरें बढ़ानी पड़ीं। आरबीआई ने भी रीपो दर बढ़ा दी। हालांकि, भारत में मुद्रास्फीति कम होकर निचले स्तर पर आ गई है मगर अमेरिका में मुद्रास्फीति अब भी ऊंचे स्तर पर है।

इसके अलावा डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन द्वारा शुल्क बढ़ाने एवं इससे जुड़ी अनिश्चितताएं (जो मुद्रास्फीति पर प्रभाव डाल सकती हैं) बाजार को निराश कर रही हैं। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) के नवीनतम अनुमान के अनुसार इस साल की अंतिम तिमाही में अमेरिका में मुद्रास्फीति लगभग 4 फीसदी तक पहुंच जाएगी, जो फेडरल रिजर्व के मध्यम अवधि के अनुमान का दोगुना होगी। अनुमान में यह भी कहा गया है कि मुद्रास्फीति 2026 में भी इस लक्ष्य से अधिक रह सकती है। ऊंची मुद्रास्फीति फेडरल रिजर्व को दरें घटाने नहीं देगी।

दूसरा कारण (जिसकी चर्चा हाल में इसी स्तंभ में की गई है) यह है कि अमेरिकी कांग्रेस के बजट कार्यालय के अनुमानों के अनुसार अमेरिका में बजट घाटा काफी ऊंचे स्तरों पर पहुंच चुका है। अमेरिका में कर्ज का स्तर मौजूदा इसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के लगभग 100 फीसदी से बढ़कर 2055 तक 156 फीसदी से अधिक हो जाएगा। अमेरिका में बजट घाटा और कर्ज को लेकर अनुमान बाजार में एक वर्ग को झटका दे रहे हैं जिससे निवेशक ऊंची यील्ड की मांग कर रहे हैं। इन दोनों कारणों से बॉन्ड यील्ड ऊंचे स्तरों पर है। यह यील्ड में अंतर कम होने की एक वजह बन रही है।

यील्ड में अंतर कम रहने से बॉन्ड पर दांव खेलने वाले विदेशी निवेशकों में उत्साह कम हो सकता है, वहीं पूंजी आने के दूसरे माध्यम भी प्रभावित हो सकते हैं। उल्लेखनीय है कि अमेरिकी बजट घाटा बढ़कर जीडीपी के 6 फीसदी से अधिक हो गया है, जो पिछले 50 वर्षों के औसत 3.8 फीसदी से अधिक है। अतः अमेरिकी सरकार को अपना घाटा कम करने के लिए अधिक संसाधनों की जरूरत है। मगर बजट घाटा कम करने के चक्कर में पूंजी लागत और रकम के प्रवाह पर असर होगा।

भारत जैसे देश के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पूंजी का श्रेष्ठ जरिया माना जाता है। रकम के साथ ही एफडीआई तकनीक एवं उत्कृष्ट व्यवहार भी अपने साथ लाता है। हालांकि, वैश्विक स्तर पर एफडीआई का प्रवाह हाल के वर्षों में शिथिल हो गया है। वैश्विक स्तर पर व्यापार से जुड़ी अनिश्चितताएं और पूंजी पर लागत बढ़ने से एफडीआई प्रवाह और अवरुद्ध हो सकता है। इस बीच, भारत में भी विदेशी निवेशक तेजी से अपना निवेश निकाल रहे हैं और एफडीआई में कमी आती दिख रही है। उदाहरण के लिए भारत में पिछले वित्त वर्ष में सकल एफडीआई 81 अरब डॉलर से अधिक रहने के बावजूद शुद्ध एफडीआई महज 35 करोड़ डॉलर रह गया।

वैश्विक वित्तीय एवं आर्थिक स्थितियां संकेत दे रही हैं कि निकट से मध्यम अवधि के बीच विदेशी रकम की आमद अनुकूल नहीं रह सकती है। आर्थिक विकास को गति देने के लिए निवेश की खास जरूरत है। लिहाजा, निवेश को बढ़ावा देने के लिए कम से कम तीन मोर्चों पर काम करना होगा। पहली बात, भारत को निवेश के एक आकर्षक स्थान के रूप में अपनी दावेदारी मजबूत करनी होगी।

दूसरी बात, विदेशी पूंजी में संभावित कमी की भरपाई करने और निवेश बढ़ाने के लिए भारत को अपनी बचत दर में इजाफा करना होगा। तीसरी बात, भारत को उपलब्ध बचत का समझदारी से इस्तेमाल करना होगा। इसे अंजाम देने का एक तरीका यह हो सकता है कि बजट घाटे में वाजिब एवं स्थायी कमी लाकर सरकारी बचत योजनाओं पर निर्भरता कम की जा सकती है। दुनिया बदल रही है और भारत को भी हालात के अनुसार बदलाव के रास्ते पर चलना चाहिए।

First Published - June 23, 2025 | 10:29 PM IST

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