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अनिश्चित जलवायु का कैसे हो नियमन

जलवायु से जुड़े जोखिम बढ़ने के साथ ही जियोइंजीनियरिंग में रुचि भी जोर पकड़ रही है। परंतु इनके समाधान पर नियंत्रण किसका होगा? बता रहे हैं

Last Updated- March 05, 2025 | 9:57 PM IST
India objects to the attitude of developed countries

मानवता की सारी ऊर्जा इन दिनों खुद पर ही लगी हुई है और जलवायु का एजेंडा अब उसकी शीर्ष प्राथमिकताओं में नहीं है। पश्चिम के लोकतंत्रों के पास विकासशील देशों को देने के लिए धन नहीं है, विकासशील देश भी वृद्धि तथा दूसरी प्राथमिकताओं पर समझौता करने को तैयार नहीं हैं और बाकी कुछ मायने नहीं रखता। इसलिए वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि का लक्ष्य बहुत जल्दी पार होने वाला है।
मेरे साथ कई और लोग भी मानते हैं कि 2 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य भी भंग हो चुका होगा।

इधर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) का अनुमान है कि मौजूदा तौर-तरीके और नीतियां चलती रहीं तो इस सदी के अंत तक तापमान 1.9 से 3.1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। बढ़ोतरी कितनी होती है यह इस बात पर निर्भर करेगी कि विभिन्न सरकारें ऊर्जा बदलाव के लिए क्या कदम उठाती हैं। गर्मी में इजाफे के असर को हम मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में रख सकते हैं। पहली श्रेणी में खुद गर्मी आती है और देखा जाता है कि इसका जीव-जंतुओं और हमारी बेहतरी के लिए क्या अर्थ है। दूसरी है गर्मी बढ़ने पर मौसम में अस्थिरता। इसे अतिरंजित मौसम से होने वाले नुकसान के रूप में देखा जा सकता है।

बीते कुछ दशकों में गर्मी में अच्छा खासा इजाफा हुआ है और मौसम की अतिरंजना भी पहले से ज्यादा दिखने लगी है। ज्यादा गर्मी होने पर हमें अपने घर, वाहन और सड़कें बेहतर तरीके से बनाने होंगे और वातावरण को कृत्रिम तरीके से ठंडा रखने का इंतजाम भी करना होगा। लू, तूफान, सूखा, बाढ़ और बादल फटने जैसी मौसमी अतिरंजना बढ़ने के कारण सरकारों और समुदायों को स्थानीय स्तर पर आ रही जलवायु आपदाओं से निपटने के लिए बेहतर क्षमता निर्माण करना होगा। यह सब मुश्किल और खर्चीला तो होगा मगर नामुमकिन कतई नहीं होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो जलवायु परिवर्तन महंगा और मुश्किल होगा मगर बढ़ते तापमान और मौसम के उतारचढ़ाव से तो निपटा ही जा सकता है।

मगर इसके प्रभावों की तीसरी श्रेणी भी है, जिसकी बात अक्सर जलवायु विज्ञानी और विनाश आने की आशंका जताने वाले करते हैं। ये जलवायु से जुड़ी वे स्थितियां हैं, जहां किसी एक देश या क्षेत्र में हुई मामूली घटना दुनिया भर की जलवायु को बदल सकती है। ऐसी कुछ घटनाओं में ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका में बर्फ का पिघलना और इसकी वजह से समुद्र में जल स्तर एवं तापमान बढ़ना है। साइबेरिया में बर्फ पिघल रहा है, जिससे भारी मात्रा में ग्रीनहाउस गैस निकल सकती है और उत्सर्जन में कमी लाने के सभी मानवीय प्रयासों पर पानी फिर सकता है। इसी तरह अटलांटिक मेरिडायनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन (एमॉक) के पतन से यूरोप और उत्तर अमेरिका का मौसम एकदम बदल सकता है। कहा तो यह तक जा रहा है कि मॉनसून भी इससे प्रभावित हो सकता है।

जलवायु मॉडल तैयार करने वालों ने यह पता लगाने की कोशिश की है कि मौसम में बदलाव लाने वाली ऐसी स्थितियां कब तक और कैसे बनेंगी। किंतु यह आसान नहीं है क्योंकि वे ऐसी घटना का अनुमान लगा रहे हैं, जो हमारी याद में कभी घटी ही नहीं है। मगर एक बात तो तय है – तापमान बढ़ेगा तो ऐसी स्थितियों या घटनाओं की संभावना भी बढ़ेगी।

अधिक गर्मी, मौसम में बार-बार चरम बिंदु आना और जलवायु बदल देने वाली स्थितियों की बढ़ती संभावनाएं वास्तव में चिंता में डाल रही हैं। पूरी दुनिया साथ मिलकर इसका कोई समाधान नहीं निकाल रही, इसलिए जियोइंजीनियरिंग के तहत अलग-अलग समाधान निकाले जा रहे हैं। इनमें पौधों के जीन में तब्दीली कर उसका जीवन बढ़ाना शामिल है ताकि वह अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड सोख सके। धरती तक पहुंचकर उसे गर्म कर रहे सौर विकिरण को कम करना भी इसी का उदाहरण है।

ऐसे कई विकल्प हैं, जिनमें से अधिकतर सूर्य की कुछ रोशनी अंतरिक्ष में वापस भेजने की जुगत भिड़ा रहे हैं। स्ट्रैटोस्फेरिक एरोसॉल इंजेक्शन ऐसा ही एक तरीका है। इसमें स्ट्रैटोस्फेयर (पृथ्वी के चारों ओर वातावरण की दूसरी परत) में एरोसॉल छोड़ा जाता है। मरीन क्लाउड ब्राइटनिंग एक अन्य विकल्प है जहां बादलों में समुद्र के पानी की सूक्ष्म बूंदें डालकर उन्हें अधिक चमकदार बनाया जाता है। अन्य संभावनाएं भी हैं। मगर ऐसे तरीके तब आसान और सस्ते होंगे जब इनकी तकनीक परिपक्व हो जाएगी। हमारे निर्णयकर्ताओं के लिए भी तब इन पर विचार करना या इन्हें अपनाना व्यावहारिक होता जाएगा।

एक सवाल यह भी है कि इन तकनीकों का इस्तेमाल कौन, किस पैमाने पर और किस उद्देश्य से करता है। मगर इससे भी जरूरी सवाल यह है कि इस तरह की गतिविधियों की निगरानी करने और उन्हें कायदे में बांधने की मजबूत व्यवस्था किस तरह लागू की जाए। खतरे हमारे सामने हैं मगर कई ऐसे खतरे भी होंगे, जिनका हमें अभी पता ही नहीं है और उनके प्रतिकूल प्रभाव बहुत ही घातक हो सकते हैं। जलवायु बदल देने वाली घटनाओं का डर जैसे-जैसे बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे ही सरकार के नियंत्रण से बाहर की या उसके नियंत्रण वाली संस्थाएं अकेले ही इन पर आगे बढ़ने का फैसला कर सकती हैं।

ऐसे में हमें दो चरणों की प्रक्रिया के जरिये इन्हें कायदे में बांधने पर सोचना होगा। पहले चरण में सुनिश्चित करना होगा कि ऐसी संभावनाओं और घटनाओं के बारे में बेहतर सूचनाएं सरकारों और दुनिया भर के लोगों को मिलें। सभी देशों में मानक सूचना एवं शोध के नियम तैयार करना इसका सबसे अच्छा तरीका है। इनमें बताया जाए कि क्या बताना है और इसका दायरा कितना बड़ा होना है कि इसे प्रायोगिक परियोजना माना जाए। इस तरह तैयार जानकारी सभी के साथ साझा की जाए ताकि दुनिया भर में मॉडल तैयार करने वाले इस जानकारी का फायदा उठाएं और जलवायु बदलने वाली घटनाओं तथा उनके प्रभावों के बेहतर मॉडल तैयार कर सकें।

ऐसी संस्थाओं के नियमन के लिए वैश्विक व्यवस्था बनाने की भी जरूरत है। चाहे संयुक्त राष्ट्र करे या जी-20 देश करें मगर हमारे हिसाब से पहला कदम उठाना और विशेषज्ञों, नीति निर्माताओं, संगठनों और रक्षा विशेषज्ञों का समूह बनाना जरूरी है। यह समूह जलवायु से जुडे प्रस्तावों, प्रारंभिक परियोजनाओं और विभिन्न देशों में उठ रहे कदमों पर करीबी नजर रखेगा तथा अपने निष्कर्ष सरकार एवं जनता के सामने पेश करेगा। प्रौद्योगिकी के तेज विकास और जलवायु परिवर्तन की बढ़ती गति को देखते हुए इस क्षेत्र में आती चुनौतियां पहचानते रहना भी उसकी ही जिम्मेदारी होगी। मैं नहीं मानता कि प्रलय आने वाली है और उम्मीद करता हूं कि कभी नहीं आएगी। मगर ऊपर बताए गए कदम ही हमें उससे बचा सकते हैं। बीती सदी में मानवता जलवायु परिवर्तन की चेतावनी पर गंभीर नहीं रही उसी नाकामी की कीमत हम आज चुका रहे हैं।

First Published - March 5, 2025 | 9:52 PM IST

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