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अतार्किक विकल्प: निर्यात को प्राथमिकता से बनेगा ‘विकसित भारत’

(अंकटाड) ने लगभग 200 देशों के लिए प्रति व्यक्ति निर्यात के आंकड़े इकट्ठे किए हैं। उस सूची में भारत 153वें स्थान पर है, जबकि दक्षिण कोरिया 44वें और ताइवान 35वें पर है।

Last Updated- December 22, 2024 | 10:11 PM IST
वस्तुओं का निर्यात दूसरी तिमाही में 4.2 प्रतिशत बढ़कर 111.7 अरब डॉलर रहने का अनुमान Exports of goods are estimated to increase by 4.2 percent to $ 111.7 billion in the second quarter

बात 1990 के दशक के मध्य की है, जब भारतीय कंपनियां आर्थिक मंदी और ऊंची ब्याज दरों जैसी चुनौतियों से जूझ रही थीं। उस वक्त मैंने अच्छी यानी उच्च गुणवत्ता वाली कंपनियां छांटने के लिए आसान तरीका ढूंढा था। मैं देखता था कि कंपनी के राजस्व का बड़ा हिस्सा निर्यात से आता है या नहीं। इसके पीछे सीधा तर्क था कि अगर कोई कंपनी भारत की लालफीताशाही, खराब बुनियादी ढांचे और ऊंचे करों के बाद भी तगड़ी होड़ भरे वैश्विक बाजार में फल-फूल रही है तो मतलब साफ है कि वह बहुत बढ़िया यानी ऊंची गुणवत्ता वाला काम कर रही होगी।
बेशक, सावधानी बरतनी ही पड़ती थी। उस समय निर्यात करने वाली कंपनियों को करों में छूट और सब्सिडी मिलने के कारण अक्सर कारोबार के आंकड़े बढ़-चढ़ जाते थे और ‘फर्जी निर्यात’ का जोखिम भी था। लेकिन कारोबार का आकार, प्रवर्तकों की योग्यता, नकदी प्रवाह, कर्ज और दूसरे पैमाने जांचकर इससे निपटा जा सकता था। केवल निर्यात पर ध्यान देने से ही पिछले 30 साल की सबसे ज्यादा बढ़त हासिल करने वाली कंपनियां मिल गई होतीं: दवा कंपनियां।

क्या यही तर्क किसी देश पर भी लागू हो सकता है? हैरत की बात नहीं है कि सभी विकसित देशों का निर्यात क्षेत्र बेहद मजबूत है। उन चार-पांच देशों का तो खास तौर पर मजबूत है, जो पिछले 100 साल में केवल एक ही पीढ़ी के भीतर विकसित देश बन गए हैं। विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास सम्मेलन (अंकटाड) ने लगभग 200 देशों के लिए प्रति व्यक्ति निर्यात के आंकड़े इकट्ठे किए हैं। उस सूची में भारत 153वें स्थान पर है, जबकि दक्षिण कोरिया 44वें और ताइवान 35वें पर है। अगर आपको लगता है कि सेवा निर्यात में भारत महाशक्ति से कम नहीं है तो आपको झटका लगेगा क्योंकि इस मामले में भारत 114 देशों में 89वें पायदान पर ही है। मलेशिया, तुर्किए और थाईलैंड जैसे देश भी इस फेहरिस्त में भारत से आगे हैं।

पिछले कुछ दशकों में जिन देशों में बहुत संभावनाएं दिखती थीं और माना जाता था कि जल्द ही वे धनी राष्ट्र का दर्जा हासिल कर लेंगे, उनके प्रति व्यक्ति निर्यात आंकड़े काफी खराब हैं। ब्राजील जैसे ये देश अपेक्षाओं पर खरे भी नहीं उतर पाए। दुनिया का विनिर्माण का अड्डा कहलाने वाला चीन भी निर्यात के मामले में 103वें पायदान पर है। इसकी दो वजहें हो सकती हैं: चीन की आबादी बहुत अधिक है और वहां से जापान, ताइवान और कोरिया के मुकाबले कम मूल्य के माल का निर्यात होता है।

समृद्ध देश निर्यात में आगे क्यों होते हैं, यह एकदम स्पष्ट है। वैश्विक बाजार में उम्दा प्रदर्शन करने वाली कंपनी की ही तरह किसी भी देश का निर्यात भी आर्थिक सेहत के बारे में काफी कुछ बताता है। मसलन विश्वस्तरीय बुनियादी ढांचा, शिक्षा का उच्च स्तर, तकनीकी नवाचार, सुचारु वित्तीय व्यवस्था, सामाजिक सौहार्द तथा फलता-फूलता निजी क्षेत्र और इन सभी को सहारा देतीं सुविचारित तथा सतत सरकारी नीतियां। सऊदी अरब जैसे कुछ देश अपवाद भी हैं, जिनके पास भारी मात्रा में प्राकृतिक संसाधन हैं और आबादी बहुत कम है।

आर्थिक नियोजन के कई उद्देश्य हो सकते हैं जैसे देश में उत्पादन बढ़ाना, रोजगार, विषमता कम करना, क्षेत्रीय विकास आदि।
सवाल यह है कि भारत की आर्थिक सफलता को गति देने वाली एक चीज क्या हो सकती है? गैरी डब्ल्यू केलर और जे पापसैन ने अपनी बहुचर्चित किताब ‘द वन थिंग’ में तर्क दिया है कि अक्सर एक ही कदम होता है, जो बाकी सब को बहुत आसान या फिजूल बना देता है। अधिकतर देशों के लिए जवाब साफ है: लगातार कई साल तक दो अकों में निर्यात वृद्धि पाना और वैश्विक मूल्य श्रृंखला में ऊपर चढ़ जाना।

ताज्जुब की बात है कि भारत इस रास्ते पर नहीं चला, जबकि 1950 के दशक से ही उसके आसपास निर्यात के दम पर आर्थिक चमत्कार होने के कई उदाहरण मौजूद रहे हैं। जापान, दक्षिण कोरिया और ताइवान ने इस रणनीति को बेहद सफलतापूर्वक तरीके से अपनाया और बाद में थाईलैंड, मलेशिया और वियतनाम ने भी इसकी थोड़ी-थोड़ी नकल की। दुनिया भर में इस बात पर चर्चा चल रही है कि गरीब देशों के अमीर बनने के लिए क्या राह होनी चाहिए। अर्थशास्त्री डैरोन एसमोग्लू और जेम्स ए रॉबिन्सन (2024 के नोबेल विजेता) ने ‘व्हाई नेशंस फेल’ में संस्थानों की भूमिका पर जोर दिया है। मगर हकीकत में जो साक्ष्य मिलते हैं वे आर्थिक राष्ट्रवाद की सफलता को दर्शाते हैं। इसके तहत नए देसी उद्योग को शुरुआत में संरक्षण दिया जाता है ताकि वे विनिर्माण की बुनियाद रखें और उसे आगे बढ़ाएं। मगर जल्द ही उन्हें अंतरराष्ट्रीय बाजार में दूसरे राष्ट्रों के खिलाड़ियों के साथ होड़ करनी पड़ती है।

इस मॉडल ने 19वीं सदी के अंत में जर्मनी को बदल दिया। जापान ने इसे सीखा और पिछली सदी में खास तौर पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह नुस्खा आजमाया। बाद में इसे जापान के दो उपनिवेशों ताइवान और दक्षिण कोरिया ने भी अपनाया। आखिर में चीन ने देर से शुरुआत की मगर वह निर्यात को एकदम नए स्तर पर ले गया, जिससे अब पश्चिम के उच्च तकनीक वाले उद्योगों को भी खतरा पैदा हो गया है। इसमें से हरेक देश ने मूल्य श्रृंखला के एकदम निचले छोर से शुरुआत की है (जापान 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में कच्चा रेशम निर्यात कर रहा था, जिसके बाद उसने कपड़ा, साइकल, सस्ते इलेक्ट्रॉनिक उपकरण और कार आदि निर्यात किए) और तकनीकी सीढ़ी चढ़ता गया है।

भारत ने 1991 में तथाकथित आर्थिक उदारीकरण को अपनाने के बाद भी पिछले तीन दशक बरबाद कर दिए। लेकिन अब मोदी सरकार कुछ योजनाएं चला रही है जिसमें आर्थिक राष्ट्रवाद के तत्व की हल्की झलक मिलती है जैसे कि उत्पादन-संबंधित प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना और मेक इन इंडिया। लेकिन इन योजनाओं को कारगर बनाने के लिए इसे उस रास्ते पर चलना चाहिए, जिस पर निर्यात में अग्रणी देश चले। इसके अलावा इन योजनाओं को सफल बनाने के लिए प्रोत्साहन को निर्यात से जोड़ा जाए, आयात कम करने के लिए देश में माल बनाने या अधिक उत्पादन करने से नहीं। शुरू में मुश्किल होगी मगर उससे पता चल जाएगा कि हरेक क्षेत्र को निर्यात में होड़ लायक बनाने के लिए क्या करने की जरूरत है। जिन चारों देशों में असाधारण वृद्धि हुई है वहां की सरकार ने विनिर्माताओं के साथ मिलकर प्रौद्योगिकी के आयात में मदद की, सस्ते कर्ज का इंतजाम किया, कमजोर कंपनियों को हटा दिया और निर्यात के अनुशासन को लगातार बनाए रखा। भारत को इससे सीखना चाहिए और इसे अपनाना भी चाहिए।

भारत के पास सफलता के लिए जरूरी चीजें पहले ही मौजूद हैं। सबसे पहले तो दवा, रसायन, स्टील, इंजीनियरिंग और सेवा जैसे क्षेत्रों में भारत का घरेलू बाजार काफी बड़ा है और उनके निर्यात बाजार में भी उसका दबदबा है। दूसरी बात, समय भी सही है। विकासशील देशों को अभी तक ‘वॉशिंगटन कंसेंसस’ के नाम पर दबा दिया जाता था, जिसमें राजकोषीय अनुशान, व्यापार एवं वित्तीय उदारीकरण, निजीकरण आदि का घालमेल होता है। लेकिन अब अमेरिका खुद ही आर्थिक राष्ट्रवाद की नीतियों को तवज्जो देते हुए अपने देश की अर्थव्यवस्था के संरक्षण को तरजीह दे रहा है। साथ ही वह दूसरे देशों के साथ व्यापार कम कर रहा है। इसलिए देर होने के बाद भी निर्यात के जरिये भारत का चमत्कार दिखाने पर जोर देने के लिए इससे बेहतर वक्त कोई और नहीं हो सकता। विकसित भारत का रास्ता यही है।

First Published - December 22, 2024 | 10:11 PM IST

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