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कार्बन से होने वाला प्रदूषण और अस्थायी कामयाबी

प्रदूषण फैलाने वाले संयंत्रों को भारत जैसे देशों में स्थापित करने से स्थानीय कंपनियों को तात्कालिक लाभ तो हो सकता है लेकिन पूंजी को नष्ट होने से बचाने के लिए कार्बन के उचित मूल्य के अधीन एक कारोबारी योजना की शुरुआत करनी होगी। ​बता रहे हैं अजय शाह

Last Updated- February 22, 2023 | 10:12 PM IST
Renewable energy
इलस्ट्रेशन- अजय मोहंती

जब कोई विकसित देश किसी खास उद्योग में प्रदूषण नियंत्रण की व्यवस्था करता है तो उन भारतीय प्रतिस्प​र्धियों की मांग और मुनाफा बढ़ जाता है क्योंकि यहां प्रदूषण नियंत्रण कमजोर होता है। ये कंपनियां अपने लाभ के स्रोत के बारे में गंभीरता से विचार नहीं करतीं। उन्हें लगता है कि वे बहुत समझदार हैं और उन्हें अपनी श्रेष्ठता की बदौलत ही बाजार अर्थव्यवस्था का लाभ मिल रहा है।

विकसित देशों में उत्पाद आयात किया जाता है और उस देश को उत्सर्जन से नहीं जूझना पड़ता है। वह उत्सर्जन भारत के स्थानीय लोगों को नुकसान पहुंचाता है। थोड़े बहुत बदलाव के साथ कार्बन डाइऑक्साइड यानी सीओ2 के उत्सर्जन के साथ भी ऐसा ही होगा।

विनिर्माण ​के किसी काम पर विचार करते हैं जो प्रदूषण फैलाता है। यह भूजल में भारी धातुएं पहुंचाने वाली कोई फैक्टरी हो सकती है। विकसित देशों में प्रदूषण नियंत्रण की व्यवस्था अपेक्षाकृत मजबूत है। ​बीते कई दशकों के दौरान नियमों को सख्त बनाने की प्रक्रिया चलती रही है। फै​क्टरियों को महंगे प्रदूषण नियंत्रक उपकरण लगाने पर विवश किया गया। इससे स्थानीय उत्पादन की लागत में इजाफा हुआ।

तुलनात्मक रूप से हमारे देश में प्रदूषण नियंत्रण कमजोर है। नियमों का प्रवर्तन कमजोर है। ऐसे में मनमानी की गुंजाइश बनती है। भारत में उत्पादन करना सस्ता है। इससे पता चलता है कि प्रदूषण संबंधी क्रय-विक्रय इसकी वजह है, न कि हमारे यहां उत्पादकता बेहतर है।

बाजार में चरणबद्ध उभार हो रहा है जहां भारतीय कारोबारियों के उत्पाद वै​श्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी नजर आते हैं। कठिन और ​वै​श्विक रूप से प्रतिस्पर्धी बाजार में उनकी हिस्सेदारी बढ़ती है। कुछ वर्षों की तेज वृद्धि के बाद शेयर बाजार में उनका कद बढ़ जाता है। शेयर बाजार समुदाय मुनाफे की ढांचागत मजबूती और आय वृद्धि जैसी बातें करता है।

विकसित देशों के आ​र्थिक एजेंट इन वस्तुओं को सस्ती लागत पर आयात करते हैं जबकि उनका देश प्रदूषण से बचा रहता है। तथ्य यह है कि भारत के भूजल में भारी धातुओं के मिलने का सुदूर खरीदार के निर्णयों पर कोई असर नहीं होता है। विकसित देशों के खरीदारों को भारत से कोई सहानुभूति नहीं होती क्योंकि प​श्चिमी देशों में राजनीति काफी हद तक पर्यावरण संरक्षण की दिशा में बढ़ गई है। इसमें कुछ भी नया नहीं है। यह पिछले काफी समय से चल रहा है।

एक आदर्श दुनिया में राजनीतिक व्यवस्था को समृद्धि और स्वास्थ्य के बीच संतुलन कायम करना होता है और प्रदूषण नियंत्रण का एक समुचित स्तर हासिल करना होता है। जीवन के सां​ख्यिकीय मूल्य और प्रदूषण से होने वाले लाभ के ​बीच रिश्ता होना चाहिए। भारतीय राज्य की सीमाएं अक्सर हमें ऐसे प्रदूषण स्तर प्रदान करती हैं जो लागत-लाभ विश्लेषण में सही नहीं बैठते।

अब इसे सीओ2 उत्सर्जन के तर्क में लागू करके देखते हैं। वै​श्विक तापवृद्धि का मामला तमाम विकसित देशों में राजनीतिक दृ​ष्टि से बहुत अहम है। ये तमाम देश लोकतंत्र हैं जहां सरकार की श​क्ति का इस्तेमाल इस प्रकार किया जाता है जहां जनता के विचारों का प्र​ति​नि​धित्व शायद ही होता है। यानी अलग-अलग प्रणाली के माध्यम से कार्बन उत्सर्जन को लेकर सख्ती की जा रही है।

भारतीय राज्य कार्बन उत्सर्जन कम करने में बहुत अ​धिक रुचि लेता नहीं दिखता। इससे प्रदूषण के मामले में मनमानेपन की ​स्थिति बनती है। वि​भिन्न उद्योगों के बीच हमें प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों की वै​श्विक भागीदारी में इजाफा होता हुआ दिखेगा। उनका मुनाफा लगातार बढ़ेगा और उन्हें नायक के रूप में सराहा जाएगा।

परंतु एक अहम अंतर भी है। कार्बन उत्सर्जन पूरी पृथ्वी को नुकसान पहुंचाता है भले ही वह किसी भी जगह हो रहा हो। यह मामला ऐसा नहीं है जैसे कि जमीन में भारी धातु का मिलना भूजल को प्रभावित करता है और उसका असर स्थानीय होता है। विकसित देशों की कंपनियों को जब अपने देश में प्रदूषण के कारण संयंत्र बंद करने पड़ते हैं तो वे राजनीतिक स्तर पर बहुत अ​धिक हो हल्ला करती हैं।

जाहिर है इससे वै​श्विक उत्सर्जन के मामले में कोई सुधार नहीं होता। विकसित देशों के राजनेता भी इस बात का सम​र्थन नहीं करेंगे कि उनके देश के रोजगार भारत जैसे किसी उत्पादन केंद्र पर स्थानांतरित हो जाएंग भले ही इससे उत्सर्जन के मामले में लाभ हो रहा हो।

ऐसे में विकसित देशों में कार्बन बॉर्डर कराधान होगा। इसके चलते आरोप-प्रत्यारोप, तनाव तथा देरी जैसी ​स्थितियां बनेंगी। इससे भारत में उत्सर्जन करने वाली कंपनियों को ही लाभ होगा लेकिन कार्बन-बॉर्डर कर ऐसी ​स्थिति में अवश्य आएगा जहां उनको मनमाने अवसरों को रोकना होगा।

इस कहानी का दूसरा हिस्सा अंतरराष्ट्रीय जटिलताओं का होगा जो भारत को बतौर सीओ2 उत्सर्जक झेलनी होगी। कम उत्सर्जन करने वाले विकसित देशों और विशुद्ध उत्सर्जक बन रहे भारत के बीच के रिश्तों में आगे चलकर बहुत अ​धिक समस्याएं आ सकती हैं। भारत पर अपने तौर तरीके बदलने का दबाव बनेगा। भारत को चीन से निपटने के लिए विकसित देशों की मदद चाहिए। कार्बन उत्सर्जन करते हुए भारत के लिए यह मदद हासिल करना मु​श्किल होगा।

लब्बोलुआब यह है कि भारतीय कंपनियों को भले ही सीओ2 उत्सर्जन से जबरदस्त लाभ हासिल हुआ हो लेकिन प्रदूषण से जुड़े क्रय विक्रय एक समय के बाद बंद हो जाएंगे और इसमें कार्बन-बॉर्डर टैक्स और प्रदूषण नियंत्रण मानकों में सुधार की अहम भूमिका होगी। भारत की गैर वित्तीय कंपनियों और उनके फंडर्स के ​लिए यह बेहतर होगा कि वे इस समस्या के बारे में सुविचारित ढंग से विचार करें।

अगर हम अंकेक्षण आंकड़ों के कुछ तिमाहियों के प्रदर्शन पर नजर डालें तो इससे ही भौतिक निवेश और वित्तीय पूंजी के आवंटन को उचित ठहराया जा सकता है। लेकिन अगर हम इसमें लगी श​क्तियों को समझें तो हम यह जानते हुए इसका लाभ उठा सकते हैं कि यह सब अस्थायी है।

भारतीय कारोबारी परिदृश्य में कारोबारी सफलता की कई तिमाहियां आएंगी जिन पर अगर कदम उठाया जाए तो पूंजी का नष्ट होना सामने आएगा। गैर वित्तीय कंपनियों और वित्तीय विश्लेषकों के लिए बेहतर होगा कि वे देश के हर कारोबार को इस प्रकार देखना शुरू करें मानो वह आ​​र्थिक सहयोग एवं विकास संगठन के स्तर के कार्बन कराधान के तहत संचालित हो।

वस्तु एवं सेवा कर वाउचर जैसी व्यवस्थाओं की मदद से हर कंपनी की कार्बन तीव्रता से निपटना होगा। मजबूत कारोबारी मॉडल प्रतिस्पर्धी होते हैं और प्रति टन सीओ2 के लिए 100 डॉलर तक की कीमत चुकाने के बाद भी शेयर पर अच्छा प्रतिफल देते हैं।

(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published - February 22, 2023 | 10:12 PM IST

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