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हर धारणा को धता बता रहे डॉनल्ड ट्रंप

इसे जरूरी नहीं लगता कि अमेरिका भारी भरकम खर्च कर दुनिया भर के समुद्रों की गश्त करे या बहुत सारे देश अमेरिका पर आश्रित रहें।

Last Updated- March 17, 2025 | 10:04 PM IST
Donald Trump

बतौर राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का दूसरा कार्यकाल शुरू हुए कुछ ही हफ्ते गुजरे हैं और यह बात साफ हो गई है कि यह उनके पिछले कार्यकाल जैसा बिल्कुल नहीं रहेगा। 2017 के मुकाबले ट्रंप ज्यादा तेजी से और निर्णायक तरीके से अपने एजेंडा पर आगे बढ़ रहे हैं तथा उनका एजेंडा भी ज्यादा अतिवादी लग रहा है।

इस बदलाव की कई संभावित वजहें हो सकती हैं। उदाहरण के लिए पिछली अमेरिकी सरकार की तुलना में इस बार मुख्यधारा में रिपब्लिकन की संख्या कम है, जिससे उनके काम में बाधा भी कम पड़ती है। जो लोग उनके अभियान में शामिल हैं या ईलॉन मस्क जैसे जो लोग अपने हित के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहते हैं उन्हें तैयारी करने के लिए काफी वक्त मिला क्योंकि इस बार ट्रंप की जीत 2016 की तरह चौंकाऊ नहीं थी।

ट्रंप और उनके समर्थकों को कमला हैरिस के मुकाबले शानदार जीत से भी हौसला मिला होगा क्योंकि पिछली बार हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ उन्होंने काफी कम अंतर से जीत दर्ज की थी। या शायद इसकी सीधी वजह यह है कि ट्रंप की उम्र बढ़ गई है और चार साल सत्ता से बाहर रहने के कारण ज्यादा चिड़चिड़े हो गए हैं क्योंकि इस दौरान उन्हें सोशल मीडिया छोड़ना पड़ा था और कई आपराधिक जांचों का सामना भी करना पड़ा था। ट्रंप को अब शायद यकीन हो सकता है कि अमेरिका का सत्ता तंत्र निजी तौर पर उनका विरोधी है, जिस बात पर पिछले कार्यकाल में वह भरोसा नहीं कर रहे थे।

अधिक स्पष्ट एजेंडा, अमेरिकी सरकार के पारंपरिक ढांचे में कम लोगों के भरोसा और ट्रंप के गुस्से को मिला लें तो समझ आ सकता है कि उनका प्रशासन सहायता करने वाली अफसरशाही से लेकर सहयोगियों की व्यवस्था तक सत्ता के विभिन्न अंगों को खत्म करने में इतनी जल्दी क्यों दिखा रहा है। उनके प्रशासन में रियायत किसी पर भी नहीं होगी। सैन्य और खुफिया सेवाओं में निश्चित रूप से सर्वोच्च स्तरों पर सियासत की जाएगी।

लेकिन सिलसिला यहीं नहीं रुकेगा। अगले चार साल में राष्ट्रपति को लगा कि फेडरल रिजर्व वृद्धि की रफ्तार रोक रहा है तो वह उसकी भी 75 साल की आजादी खत्म कर देंगे। अमेरिकी सर्वोच्च अदालत में उनके चुने न्यायाधीशों में से कोई अगर उनकी हुक्मउदूली करता है (खबर हैं कि अदालत के गिने-चुने उदारवादियों के खेमे में आ चुकी एमी कॉनी बैरेट ऐसा कर सकती हैं) तो बिला शक वह न्यायिक स्वतंत्रता के पर कतरने का रास्ता भी ढूंढ लेंगे। ट्रंप आसपास देखेंगे तो उन्हें पता चलेगा कि बड़े लोकतंत्रों में ये काम कितनी आसानी से किए जा सकते हैं।
यूक्रेन के मुद्दे पर ट्रंप ने जिस तेजी से पलटी मारी उससे ज्यादा हैरत तो देसी प्राथमिकताओं पर उनकी रफ्तार देखकर हुई है। अमेरिका ने व्यापार नीति और शुल्कों पर पिछली बार के मुकाबले जितनी तेजी से काम किया है उसे देखकर भी झटका नहीं लगना चाहिए। समय गुजरने के साथ ट्रंप को यकीन हो गया है कि वृद्धि और राजस्व के स्रोत के तौर पर संरक्षणवाद काफी कारगर है।

पिछले कुछ हफ्ते में नई सरकार जिस तरह कई मोर्चों पर सक्रिय हो गई है, उस पर विश्लेषक शायद रीझ गए हैं। प्रशासन की रणनीति में जोर किस बात पर है, इसकी पड़ताल शायद ही की गई है। अफसोस की बात है क्योंकि इससे ज्यादा हैरत और क्या हो सकती है।
ट्रंप के अभियान और खुद ट्रंप के बारे में दो बातें काफी लंबे समय से मानी जाती रही हैं। पहली, यह अभियान वैश्विक मामलों में अमेरिका को वापस श्रेष्ठ बनाने और बनाए रखने के लिए है। ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (मागा) सुनकर तो यही लगता है। दूसरी, राष्ट्रपति ट्रंप खुद ही ‘सौदेबाजी’ में माहिर हैं और राजनीति तथा कारोबार में इस हाथ लेने और उस हाथ देने पर जोर देते हैं। मगर दोनों ही बातें गलत हुईं तो? ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के शुरुआती हफ्तों में तो इन धारणाओं को चुनौती ही मिली है।

मागा अभियान अमेरिका को अगुआ बनाने के बजाय पीछे हटवाकर ज्यादा खुश लग रहा है। इसे जरूरी नहीं लगता कि अमेरिका भारी भरकम खर्च कर दुनिया भर के समुद्रों की गश्त करे या बहुत सारे देश अमेरिका पर आश्रित रहें। अगर रूस, चीन या ईरान जैसे दुश्मनों को दबाने में जरा भी खर्च करना पड़े तो मागा अभियान उन्हें दबाने या नीचा दिखाने के लिए भी तैयार नही है। असल में मागा का अमेरिका की ताकत या दबदबे से कुछ लेना-देना ही नहीं है।

अमेरिका के लिए यह जिस ‘ग्रेट’ की बात करता है वह पूरी तरह देश के आंतरिक संगठन के लिए है। अमेरिका आर्थिक और वित्तीय मामलों में बाकी दुनिया से इतना आगे है, जितना पहले कभी नहीं था। इसीलिए इसमें कुल आय या अर्थशास्त्र जैसा कुछ भी नहीं है। यह अभियान 1950 के दशक के मूल्यों, जीवन शैली और आकांक्षाओं को फिर लाने के लिए है।

ट्रंप और उनके प्रशासन का बरताव भी अमेरिका के संकल्पों को तार्किक रूप से गढ़ने पर ध्यान नहीं दे रहा। यहां मामला विचारधारा से जुड़ा है: अमेरिका को पारंपरिक मूल्यों वाला व्यवस्थित लोकतंत्र बनाने पर ध्यान दिया जाए। इसमें उनके साथी रूस और चीन जैसे देश हैं, जो ऐसा ही सोचते हैं। यूरोप और कनाडा जैसे उदारवादी उनके साथी नहीं हैं। यूरोप पर चीन से ज्यादा शुल्क लगाया जाएगा क्योंकि ट्रंप को यूरोप ज्यादा नापसंद है। यह वैचारिक रूप से बेहद प्रतिबद्ध सरकार है और यह इतनी ज्यादा उलटबांसी है कि किसी का ध्यान ही इस ओर नहीं गया।

First Published - March 17, 2025 | 9:59 PM IST

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