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आम चुनाव में जीत की गारंटी कभी थी ही नहीं

अब जबकि चुनाव परिणाम स्पष्ट हो चुके हैं, एक्जिट पोल करने वालों को देश की जनता से तथा कांग्रेस पार्टी को निर्वाचन आयोग से माफी मांगनी चाहिए। कह रहे हैं आर जगन्नाथन

Last Updated- June 04, 2024 | 11:43 PM IST
There was never any guarantee of victory in the general elections आम चुनाव में जीत की गारंटी कभी थी ही नहीं

वर्ष 2024 के आम चुनाव में मोदी की संभावित जीत को लेकर कई आलेख और यहां तक कि किताबें भी लिखी गईं। यह सब चुनाव होने के पहले हुआ और अब हम कह सकते हैं कि ऐसे दावे करने वाले काफी हद तक गलत थे। देश में जिस हद तक सामाजिक और आर्थिक समस्याएं व्याप्त हैं, खासतौर पर बेरोजगारी और ग्रामीण आर्थिक कमजोरी की समस्याएं, उन्हें देखते हुए हम कह सकते हैं कि 2024 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जीत की गारंटी कभी थी ही नहीं।

ऐसे में शेयर बाजारों ने राजनीति और आर्थिक नीति में स्थिरता की चाहे जितनी उम्मीद थी हो वह घटित होती नहीं नजर आती। अब भाजपा को सत्ता में बने रहने के लिए तेलुगू देशम और जनता दल यूनाइटेड (जदयू) जैसे साझेदारों पर निर्भर रहना होगा।

ध्यान रहे मतदान शुरू होने से पहले अनेक पर्यवेक्षक जदयू को नकार चुके हैं। ये दल इस स्थिति में हैं कि चाहें तो दूसरे गठबंधन से भी मोलतोल कर सकते हैं। चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, एम के स्टालिन और अखिलेश यादव अब सबसे मजबूत क्षेत्रीय राजनेता हैं जिनके साथ दिल्ली की सत्ता चाहने वाले दलों को सौदेबाजी करनी होगी।

यह नरेंद्र मोदी की बड़ी हार है क्योंकि भाजपा के 370 से अधिक सीटें जीतने और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के 400 का आंकड़ा पार करने की बातों से वह पार्टी को साधारण बहुमत तक नहीं दिला पाए। इसमें बहुत कम संदेह है कि प्रधानमंत्री का अपना करिश्मा पार्टी पर भारी है लेकिन 2024 इस बात का प्रमाण है कि कोई पार्टी जीत के लिए हमेशा एक नेता पर निर्भर नहीं रह सकती है। कांग्रेस पार्टी को बीते एक दशक में इस बात का अहसास गांधी परिवार के साथ हुआ और भाजपा को भी अब इस हकीकत को जल्द समझ लेना चाहिए।

पार्टी को मतदाताओं के साथ संपर्क में बने रहने के लिए एक से अधिक नेताओं की जरूरत है। यह दलील क्षेत्रीय दलों पर भी लागू होती है। लोकतंत्र कई बार मजबूत नेताओं का पक्ष लेता है लेकिन जब समय आता है तो मतदाता जोखिम उठाकर बदलाव के पक्ष में भी मतदान करते हैं।

अगर इसे बुरी खबर माना जाए तो वह यह है कि हाल के वर्षों की सत्ता समर्थक राजनीति की जगह अब सत्ता विरोधी राजनीति ने ले ली है और मुफ्त उपहारों वाली राजनीति एक बार फिर केंद्र में आ सकती है। इस बार भाजपा ने ऐसी राजनीति का प्रतिरोध किया लेकिन उसे लग सकता है कि उसने इसकी भारी कीमत चुकाई और संभव है आने वाले वर्षों में उसका झुकाव भी इस ओर बढ़े। खासकर अगर उसके साझेदार ऐसा करना जारी रखते हैं तब वह ऐसा जरूर कर सकती है।

भाजपा को इस बार ऐसे कई राज्यों में सीट गंवानी पड़ी हैं जहां 2019 में उसे भारी जीत मिली थी। इनमें उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान शामिल हैं। मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड तथा हिमाचल जैसे छोटे राज्यों में अवश्य उसका दबदबा बरकरार है।

हिमाचल प्रदेश ने विधानसभा उपचुनाव और लोक सभा उपचुनाव में विभाजित जनादेश दिया था। लोक सभा उपचुनाव में भाजपा और विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस को जीत मिली थी। उत्तर प्रदेश के बाद भाजपा को सबसे अधिक नुकसान महाराष्ट्र में हुआ जहां शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को विभाजित करने की रणनीति न केवल नाकाम रही बल्कि उसके साझेदार भी कमजोर साबित हुए। अगर भाजपा इस सिद्धांतहीन गठबंधन के बजाय स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ती शायद अधिक कामयाबी पाती। सकारात्मक पहलू की बात करें तो सत्ताविरोधी लहर के कारण ओडिशा में पार्टी नवीन पटनायक को सत्ता से हटाने में कामयाब रही जबकि आंध्र प्रदेश में उसके साझेदार को जीत मिली।

विपक्षी दल 2014 से अब तक की सबसे मजबूत स्थिति में हैं। ऐसे में राजनीतिक दबाव बढ़ेगा। ध्यान रहे इस साल महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में तथा अगले वर्ष बिहार और दिल्ली में विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें से कम से कम चार राज्यों में भाजपा को तगड़े विरोध का सामना करना होगा और उसे नए साझेदारों और नीतियों की तलाश करनी होगी।

2024 में कांग्रेस पार्टी को बड़ी कामयाबी हासिल हुई है। उसने हिंदी प्रदेशों में भी अपनी स्थिति मजबूत की है जबकि क्षेत्रीय दलों ने अपने किले और मजबूत किए हैं। हारने वाले क्षेत्रीय दल रहे ओडिशा में बीजू जनता दल और तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति। बीजू जनता दल की हार चौंकाने वाली नहीं है क्योंकि 24 साल से प्रदेश के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की उम्र भी काफी हो चुकी है। भारत राष्ट्र समिति ने 2023 में अपने कद से बड़ा लक्ष्य तय करते हुए दिल्ली पर निशाना साधा जिसका नुकसान उसे उठाना पड़ा और भाजपा ने इसका लाभ लिया।

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, आंध्र में तेलुगू देशम और महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने अपनी स्थिति मजबूत की है।

बहुजन समाज पार्टी का आधार अवश्य उत्तर प्रदेश में है लेकिन वह कभी सही मायनों में क्षेत्रीय दल नहीं रही और अब वह विदा होती दिख रही है। इसका उत्तर प्रदेश तथा अन्य स्थानों की दलित राजनीति पर गहरा असर होगा। यह समूह अब नया नेतृत्व तलाश रहा है और सभी क्षेत्रीय दल तथा कांग्रेस एवं भाजपा इनमें अपनी पैठ बनाना चाहेंगे। कहा जा सकता है कि कांग्रेस के इस आरोप ने भी उत्तर प्रदेश में भाजपा की हार में योगदान किया होगा कि भाजपा आरक्षण और कोटा समाप्त कर देगी। दलित वोटों ने इस बार उत्तर प्रदेश में भाजपा के खराब प्रदर्शन में योगदान किया।

चार जून की शाम तक के जीत और बढ़त के रुझानों से लगता है कि भाजपा इतनी कमजोर नहीं थी कि हार जाए और विपक्ष में जीतने लायक मजबूती नहीं थी। इससे लगता है कि राजग को अगली सरकार गठबंधन के असर में चलानी होगी क्योंकि भाजपा के पास बहुमत नहीं होगा। संभव है कि यह राजनीति या आर्थिक स्थिरता के लिए सही न हो लेकिन इससे देश की विविधता की पुष्टि होती है जहां एकता हासिल करना हमेशा कठिन होगा।

नरेंद्र मोदी और उनके दल के लिए मतदाताओं ने स्पष्ट संदेश दे दिया है कि कोई नेता मतदाताओं से बड़ा नहीं होता।

First Published - June 4, 2024 | 10:02 PM IST

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